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________________ त्याग है दुःख से बचने के लिए ४५७ 'कोशा की चित्रशाला में रहना, जो कामशास्त्र के चित्रों से भरी है, षड्रस युक्त भोजन करना और सामने कोशा जैसी नृत्यांगना का निरन्तर प्रणय निवेदन सुनना। इतना होने पर भी निर्लिप्त रहना। यह सबसे बड़ी कला है। आर्य स्थूलभद्र इस चित्रशाला में रहे, षड्रस युक्त भोजन किया, फिर भी मेरे प्रणय निवेदन से उनका मन विचलित नहीं हुआ। यह है साधना, यह है कला। कमलपत्र की निर्लेपता उत्तराध्ययन सूत्र का एक महत्त्वपूर्ण पद्य है-रस से विरक्त मनुष्य शोकमुक्त बन जाता है-जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता वैसे ही वह संसार में रहकर अनेक दुःखों की पंरपराओं से लिप्त नहीं होता रसे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमझे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं।। बहुत सारे लोग पढ़ते हैं। उनका ज्ञान काफी बढ़ जाता है, जानकारियां बढ़ जाती हैं। हिमालय की ही नहीं, मेरु पर्वत तक की जानकारी हो जाती है। नीम, खेजड़े के वृक्ष की ही नहीं, कल्पवृक्ष की भी जानकारी हो जाती है। हीरे-पन्ने की नहीं, चिन्तामणि रत्न की भी जानकारी हो जाती है। दृश्य और अदृश्य-अनेक तत्त्व जान लिए जाते हैं। जानकारी के साथ-साथ अहंकार भी उतना ही बढ़ जाता है। क्या यह संभव है-ज्ञान हो और अहंकार न हो? ऐसे अनेक प्रश्न है-समूह हो और कोलाहल न हो? पानी आए और साथ में मिट्टी न आए? हवा आए और रेत न आए? अच्छी बात सुनें और नींद न आए? यदि ये सब असंभव हैं तो चर्चा व्यर्थ है। यदि संभव है तो कैसे हैं? वस्तुतः कला यही है-हजारों लोग इकट्ठे हों और कोलाहल न हो। धर्म की बात सुनें और नींद न आए, हवा-पानी आए और रेत न आए। यह संभव है और इसका नाम है कला। मनुष्य बुद्धिमान प्राणी है, उसने इस कला को सीखा है, बहुत उपाय खोजें हैं। मनुष्य ने चलनी इसीलिए बनाई कि पानी छन जाए और न जाने की चीज ऊपर रह जाए। लोग कुण्ड या हौज बनाते हैं। उसमें पानी जाने के लिए नाला रखते हैं। उस नाले से केवल पानी ही जाए, इसके लिए जाली लगा देते हैं। जाली से छनकर पानी चला जाता है और दूसरे तत्त्व बाहर ही रह जाते हैं। इसका नाम हैं विवेक। हंस-विवेक _ आदमी ने पृथक्करण करना सीखा है। यदि एक शब्द में कहा जाए तो सबसे बड़ी कला है विवेक, विवेचन की शक्ति, छानने की शक्ति । प्रसिद्ध शब्द है हंस-विवेक। हंस में विवेक होता है। उसकी चोंच में अम्लता होती है। दूध में चोंच डालते ही पानी अलग हो जाता है और दूथ अलग। दूध को नींबू का सत्त्व डालकर फाड़ा जाता है। छन्ना अलग हो जाता है और पानी अलग। यह हमारा विवेक ही है कि सारे विषयों के बीच, कलह और कोलाहल के बीच, झगड़े और समस्याओं के बीच रहते हुए भी हम उनसे दूर रह सकते हैं। हम एकांत में कहीं जा नहीं सकते। वस्तुतः एकांत कहीं है ही नहीं। कहा जाता था-हिमालय पर चले जाओ, एकांतवास हो जाएगा। आज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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