SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 466
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४८ महावीर का पुनर्जन्म चला जाता है। दरवाजे और दीवार में यही अन्तर है। दीवार आदमी को रोक देती है, दरवाजा उसे प्रवेश करने देता है। यह मोह की ऐसी दीवार है, उसके सामने आते ही व्यक्ति के पैर ठिठक जाते हैं, वह आगे नहीं चल पाता। पहले किसे मिटाएं? हमारे सामने प्रश्न है-हम पहले किसे पकड़ें? लोभ को मिटाएं? तृष्णा को मिटाएं? मोह को मिटाएं? या दुःख को मिटाएं? पहले किसे मिटाना चाहिए? प्रत्येक आदमी यही सोचता है-पहले दुःख को मिटाया जाए। दुःख को पकड़ लिया, मिटा दिया तो सब कुछ ठीक हो जाएगा। महात्मा बुद्ध के पास एक व्यक्ति आया। आनन्द ने कहा-'धर्म सुनो।' बुद्ध बोले-'यह भूखा है। पहले इसे रोटी खिलाओ। उसके बाद धर्म की बात करो।' साम्यवादी प्रणाली का यह मुख्य सूत्र है--'पहले रोटी की व्यवस्था करो, उसके बाद दूसरी बात करो।' । आम धारणा है-पहले दुःख को मिटाया जाए। यह सपना बहुत मीठा लगता है। इसे सुनना भी अच्छा लगता है। किन्तु क्या कभी दुःख को पकड़ा गया है? क्या किसी ने किसी के दुःख को मिटाया है? दुःख मिटाना किसी के हाथ में नहीं है। रोटी खिलाना, पानी पिलाना, वस्त्र देना, यह सारा व्यक्ति के हाथ में है किन्तु किसी के दुःख को मिटाने का सामर्थ्य उसमें नहीं है। दुःख का संवेदन भीतर से हो रहा है। उसे पैदा करने वाले–मोह, तृष्णा और लोभ भीतर बैठे हुए है। दुःख को पैदा करने वाले घटक-तत्त्व भीतर हैं और हम बाहर से वस्तुएं देकर उसे मिटाना चाहते हैं। क्या यह सम्भव बन पाएगा? दुःखकारक तत्त्व भीतर है तर्कशास्त्र का नियम है-'मनुष्य मरणधर्मा है। जो जिएगा, वह मरेगा।' प्रश्न हुआ-'क्या यह तर्क सत्य है?' उत्तर दिया गया-'हां!' फिर प्रश्न पैदा हुआ-'सब मरेंगे किन्तु जो अन्त में मरेगा उसकी दाहक्रिया कौन करेगा?' हम पहले बिन्दु को पकड़ें, अन्तिम बिन्दु को पकड़ें, बीच की बात को भी पकड़ें। हम केवल अन्तिम बिन्दु को पकड़कर तर्क करते हैं-अन्तिम मुर्दे को कौन जलाएगा? हम मूल को भूल जाते हैं, केवल दुःख को पकड़ते हैं और यही समस्या है। जब दुःख को पैदा करने वाले सारे तत्त्व मौजूद हैं तब दुःख मिट कैसे पाएगा? बहुत लोग ऐसे हैं, जिनके पास पदार्थों का प्रचुर संग्रह है, सुख-सुविधा के सारे साधन उपलब्ध हैं। उनके पास जितना प्रचुर धन, वैभव और आधिपत्य है, उतना ही दुःख भी है। हम इसका कारण खोजें। इसका कारण है-दुःख को मिटाने वाले साधन बाहर से मिल गए किन्तु दुःख को पैदा करने वाले तत्त्व भीतर विद्यमान हैं। बाहर से हम दुःख को मिटाने का प्रयत्न करते रहेंगे और भीतरी तत्त्व दुःख पैदा करते रहेंगे। दुःख का कहीं अन्त नहीं होगा, उसका मुंह सुरसा की भांति बढ़ता ही चला जाएगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy