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पहले कौन?
रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति। कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति।। दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा। तण्हा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हओ जस्स न किंचणाई।।
राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है और वह जन्म-मरण का मूल है। जन्म-मरण को दुःख का मूल कहा गया है।
जिसके मोह नहीं है, उसने दुःख का नाश कर दिया। जिसके तृष्णा नहीं है, उसने मोह का नाश कर दिया। जिसके लोभ नहीं है, उसने तृष्णा का नाश कर दिया। जिसके पास कुछ नहीं है, उसने लोभ का नाश कर दिया। दुःख का चक्र
एक शिरा है दुःख का और दूसरा सिरा है लोभ का। दोनों को पकड़े, दुःख का कारण उपलब्ध हो जाएगा।
प्रश्न हुआ—'लोभ कहां से पैदा हुआ?' 'तृष्णा ने लोभ को पैदा किया है।' 'तृष्णा को किसने पैदा किया है?" 'मोह ने तृष्णा को जन्म दिया है।' 'मोह का जन्म किससे हुआ है? ' 'दुःख से। 'दुःख का मूल कारण क्या है?' 'जन्म-मरण। 'जन्म-मरण का कारण क्या है?' 'मोह।
यह एक पूरा चक्र बन गया। तृष्णा और मोह
मोह और तृष्णा, तृष्णा और मोह-दोनों जुड़े हुए हैं। एक प्रश्न और प्रस्तुत हुआ-पहले मोह या पहले तृष्णा? इसका कोई समाधान नहीं दिया जा सकता। जैसे बलाका अण्डे से उत्पन्न होती है और बलाका से अण्डा उत्पन्न होता है। उसी प्रकार तृष्णा से मोह और मोह से तृष्णा उत्पन्न होती है। दोनों एक दूसरे को सहारा देते हैं
जहा य अंडप्पभवा बलागा, अंडं बलागप्पभवं जहा य।
एमेव मोहाययणं खु तण्ह, मोहं च तण्हाययणं वयंति।। मोह की दीवार
मोह का अर्थ है-मूर्छा, मूढ़ता। आदमी में मूढ़ता होती है, विपर्यास होता है, विपरीत भाव होता है। वह सुख को दुःख मान लेता है। मार्ग खुला है किन्तु वह मान लेता है-रास्ता बन्द है। मार्ग खुला नहीं है, किन्तु वह उसे खुला मान लेता है। आदमी चलता है। चलते-चलते उसके सामने दीवार आ गई, रास्ता बन्द हो गया। यदि सामने दरवाजा होता है तो व्यक्ति उसे पारकर आगे
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