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________________ २८ महावीर का पुनर्जन्म 'नहीं लाया।' 'क्यों नहीं लाये?' 'एक रस्सा दो आने का होता है और वे एक रुपया मांग रहे हैं। मैंने सोचा-हम बूढ़े हो गये हैं, मरना तो है ही। दो आने के बदले एक रुपया क्यों खर्चा जाए। मैं तो रस्सा नहीं लाया। अब मरना है तो मरो।' परिग्रह में आसक्त व्यक्ति सघन मूर्छा में चला जाता है। उसके सामने रुपये का मूल्य बढ़ जाता है, जीवन का मूल्य समाप्त हो जाता है। यह कहानी नहीं, मानवीय प्रकृति का सुन्दर चित्रण है। मनुष्य की प्रकृति ही ऐसी है। जब वह लोभ में फंस जाता है तब वह बहुत सारी सार्थक, मूल्यवान वस्तुओं को गौण कर देता है, अमूल्य को बहुत मूल्य दे देता है। दृष्टिकोण बदले सघन आरम्भ और परिग्रह में डूबा हुआ व्यक्ति अध्यात्म का मूल्य नहीं आंक सकता। उसे मनुष्य जन्म की दुर्लभता का बोध भी नहीं होता। उसकी दृष्टि में मूल्यवान् होता है धन। वह सोचता है यदि धन पास में है तो सब कुछ है। उसके दिमाग में यह धारणा गहरे में वैठी हुई है कि दुनिया में सबसे ज्यादा दुर्लभ है धन। इस धारणा को तोड़ना बहुत आवश्यक है। इस मनोवृत्ति पर चोट करते हुए महावीर ने कहा-'जब तक आरम्भ और परिग्रह की ये धारणाएं बनी रहेंगी तब तक दुर्लभ चतुष्टयी की बात भी समझ में नहीं आएगी।' अगर यह धारणा बन जाए-जीवन चलाने के लिए धन जरूरी है पर धन ही सब कुछ नहीं है तो दुर्लभता की बात समझ में आ सकती है। जीवन चलाने का साधन धन को माना जा सकता है पर उसे सब कुछ नहीं कहा जा सकता। आज विश्व में मानसिक तनाव, भावात्मक तनाव बढ़ रहा है। इसका एक मुख्य कारण है-धन को सब कुछ मानना। अन्यथा यह तनाव की समस्या उग्र नहीं होती। आवश्यक है दृष्टिकोण को बदलना। जब तक आरम्भ और परिग्रह का सघन चक्रव्यूह नहीं टूटेगा तब तक इस दुर्लभ चतुष्टयी का मूल्यांकन संभव नहीं बन पाएगा। इस दुर्लभ चतुष्टयी का सम्यक् मूल्यांकन आरम्भ और परिग्रह की चेतना को बदलकर ही संभव बनाया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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