SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दुर्लभ संयोग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । निवृत्ति है सहज-सरल है किन्तु संयम में कठिनतम है। में वीर्य करना मुश्किल है, इस चरण में जो गहराई है, अर्थ गाम्भीर्य है, वह संयम में वीर्य करना । असंयम में वीर्य का प्रयोग वीर्य का प्रयोग करना कठिन, कठिनतर और दुर्लभ है दुर्लभता का संज्ञान आचार्य से दुर्लभ की श्रृंखला का विशद विवेचन सुनकर शिष्य मुग्ध हो उठा । उसने पूछा- गुरुदेव ! इस चतुष्टयी की उपलब्धि दुर्लभ है, यह बोध भी अनेक व्यक्तियों को नहीं होता। इसका कारण क्या है ? २७ आचार्य ने कहा - इसका कारण भी महावीर की वाणी के आधार पर खोजा जा सकता है। जब तक जीवन में आरम्भ की बहुलता है और जब तक परिग्रह में ही आदमी लगा हुआ है तब तक यह चतुष्क- मनुष्य जन्म, श्रुति, श्रद्धा और संयम में पराक्रम दुर्लभ है, ऐसा संज्ञान होना भी दुर्लभ है। यावदारंभबाहुल्यं, यावत् परिग्रहग्रहः । चतुष्कं दुर्लभं तावद्, इति संज्ञाऽपि दुर्लभा । । समस्या आरम्भ और परिग्रह की है । आरम्भ मनुष्य के चित्त में सर्वत्र परिव्याप्त है । मैं जानता हूं-एक गृहस्थ आरम्भ को छोड़ नहीं सकता पर कम से कम उसे अनारम्भ का बोध तो होना चाहिए । अनारम्भ का मूल्य क्या है? अनारम्भ जीवन में कितना जरूरी है और आरंभ की सीमा करना कितना जरूरी है ? इस ओर ध्यान केन्द्रित होना आवश्यक है। यदि मनुष्य केवल आरम्भ में डूबा रहा तो उसकी एक श्रृंखला बन जाएगी और वह श्रृंखला कभी टूटेगी नहीं, अंतहीन बन जाएगी। आगमों में कहा गया है— जब तक आरम्भ और परिग्रह में कमी नहीं आती, मूर्च्छा कम नहीं होती तब तक धर्म सुनने की स्थिति नहीं बनती। परिग्रही व्यक्ति सुनता हुआ भी नहीं सुनता, देखता हुआ भी नहीं देखता। उसे वस्तुस्थिति का पता ही नहीं चलता । परिग्रह का भी एक ग्रह है। उसमे जकड़ा हुआ व्यक्ति अपने जीवन को भी व्यर्थ समझ लेता है । आसक्ति ओर लोभ में फंसे हुए व्यक्ति के सामने जीवन का कोई मूल्य नहीं होता । मूर्च्छा से घिरा है आदमी दो वृद्ध मित्र थे। दोनों में गाढ़ी मित्रता थी । वे किसी यात्रा पर जा रहे थे । पुराने जमाने में प्रायः पैदल ही चलना होता था । वे पैदल ही जा रहे थे। रास्ते में एक कुआं आया। उन्होंने सोचा - जरा सुस्ता लें, विश्राम कर लें और पानी पी लें। वे कुएं पर ठहर गये। एक व्यक्ति कुएं के पास गया। जैसे ही वह कुएं में पानी देखने के लिए झुका, उसमें गिर गया। संयोग ऐसा मिला - कुएं में एक पेड़ था। वह उस पर अटक गया, उसे पकड़कर वहीं खड़ा हो गया । जोर से चिल्लाया- 'मुझे निकालो। मैं गिर जाऊंगा।' ‘कैसे निकालूं?” 'बाजार जाकर एक रस्सा खरीदकर ले आ और मुझे निकाल दे । मित्र बाजार गया और घंटा भर घूमघाम कर वापस आ गया। मित्र ने पूछा- क्या रस्सा ले आये ? For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy