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यह रास्ता है दुःख के अलविदा का
हम अभी जैन विश्व भारती में हैं। यहां से दिल्ली लगभग साढ़े तीन सौ किलोमीटर है और कलकत्ता हजार किलोमीटर से भी ज्यादा है। लाडनूं का आदमी दिल्ली या कलकत्ता जा भी सकता है और नहीं भी जा सकता। यदि भार्ग है तो वह जा सकता है, यदि मार्ग नहीं है तो वह नहीं जा सकता। मार्ग के अभाव में दिल्ली और कलकत्ता ही नहीं, कहीं भी नहीं जाया जा सकता। प्रश्न होता है- लक्ष्य का मूल्य ज्यादा है या मार्ग का? लक्ष्य सामने है और मार्ग नहीं है तो व्यक्ति उस तक पहुंच नहीं पाएगा। मूल्य है मार्ग का, मूल्य है साधन का । यदि हमारे सामने मार्ग स्पष्ट नहीं है तो साध्य की बात अधूरी रह जाएगी । लक्ष्य तक पहुंचने के लिए मार्ग का चुनाव करना होता है। मार्ग की खोज बहुत बड़ी खोज है। जिसने मार्ग को खोजा है, साधन को खोजा है, वह लक्ष्य तक पहुंचा है । जिसने मार्ग को नहीं खोजा, वह बीच में ही अटक गया, लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाया। मार्ग की खोज का प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण है ।
दुनिया में बहुत सारे दुःख हैं, समस्याएं हैं, तनाव हैं, संताप हैं आदमी उनसे मुक्त होना चाहता है। धर्म के लोगों ने आश्वासन दिया - - 'तुम धर्म करो, तुम्हारे सब दुःख मिट जाएंगे।' राजनीति के लोग भी आश्वासन देते हैं- 'आप हमारा सहयोग करें, हम आपके सब दुःखों को मिटा देंगे, सारी समस्याओं को सुलझा देंगे।' सब दुःखों से मुक्ति का आश्वासन बहुत बड़ा आश्वासन है । एक-दो दुःखों को मिटाना भी मुश्किल है। उस स्थिति में सारे दुःखों को समाप्त करने का आश्वासन कितना बड़ा आश्वासन है । इतना बड़ा आश्वासन देना सचमुच साहस का काम है। धर्म के क्षेत्र में दुःख-मुक्ति का आश्वासन ही नहीं दिया गया, उनका मार्ग भी सुझाया गया ।
गुरु- सेवा
दुःख - मुक्ति का पहला मार्ग है-गुरु-सेवा । गुरु की सेवा का कितना मूल्य है! शिष्य अपने गुरु की सेवा में अपनी सारी शक्ति नियोजित कर देता है । शिष्य ने गुरु से निवेदन किया- 'गुरुदेव ! मैं कुछ पाना चाहता हूं, साधना करना चाहता हूं, आप मार्ग बताएं।' गुरु ने कहा- 'आओ! यहां रहो ।' वह गुरु के पास रह गया। गुरु बोले- 'जाओ! जंगल से लकड़िया काटकार लाओ ! वह लकड़ियां काटकर ले आया ।' उसने पूछा - 'साधना का मार्ग ? गुरु ने कहा - अभी नहीं ! मैं जो कहता हूं, करते चले जाओ। मकान साफ करो, पानी लाओ, रसोई बनाओ!' शिष्य एक दिन नहीं, दो दिन नहीं, बारह वर्ष तक ये सब कार्य करता चला गया। शिष्य ने पूछा - 'गुरुदेव ! कब बताएंगे साधना का
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