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________________ ४३६ महावीर का पुनर्जन्म यह चिन्तन स्वाभाविक चिन्तन है। प्रत्येक आदमी ऐसा सोच सकता है। मोक्ष में जाना अशरीर होना है और सदा वहीं बने रहना है। मोक्ष जाने वाला व्यक्ति इस दुनिया के बीच में कभी नहीं आता। मोक्ष में जाने का अर्थ है-न दुनिया में आना, न मित्रों, सगे-संबंधियों से मिलना, न पुराने परिचितों से मिलना। वहां ऊब जाए तो कोई बात करने वाला नहीं। वहां न कोई सुख-दुःख की बात करने वाला है और न किसी से कुछ पूछने का अवकाश है। मरुदेवा ने भरत से कहा-'भरत! तुम राज्य में मुग्ध हो गये। तुम्हें पता ही नहीं है कि तुम्हारे पिता ऋषभ कहां हैं? वे सुख में हैं या दुःख में हैं? उन्हें खाने को रोटी मिलती है या नहीं? उन्हें सोने को स्थान मिलता है या नहीं? तुम्हें अपने पिता की कोई सुध-बुध नहीं है।' राज्य में मुग्ध बना व्यक्ति सबको भूल जाता है। मोक्ष में भी ऐसा ही होता है। वहां कोई किसी की सुध-बुध लेने वाला नहीं है। इन सारे संदर्भो में हम सोचें-क्या अशरीर होना समस्या नहीं है? . त्याग से जुड़ा है मोक्ष दर्शन के क्षेत्र में दो धाराएं रही हैं-निर्वाणवादी धारा और स्वर्गवादी धारा। स्वर्गवादी धारा के सामने यह समस्या नहीं है। व्यक्ति स्वर्ग में चला जाता है। वेदों में कहीं भी मोक्ष का जिक्र नहीं है, संन्यास की भी चर्चा नहीं है। अगर मोक्ष नहीं है तो संन्यास की जरूरत नहीं है। स्वर्ग जाने के अनेक मार्ग हैं। यज्ञ के द्वारा भी स्वर्ग में जाया जा सकता है। उसके लिए संन्यास लेना अनिवार्य नहीं है। निर्वाणवादी धारा में संन्यास का मूल्य बढ़ा, त्याग का मूल्य बढ़ा। मोक्ष के लिए त्याग का होना जरूरी है। निर्वाण क्यों? हम इस प्रश्न पर थोड़ा विमर्श करें। व्यक्ति सोचता है-मैं मनुष्य नहीं रहूंगा, लोगों के बीच में नहीं रहूंगा, समाज में नहीं जी सकूँगा। इस उठापटक और राग-द्वेष की दुनिया से विच्छिन्न हो जाऊंगा, कट जाऊंगा। वह सोचता है-राग-द्वेष के बिना जीवन में कोई आनन्द है? जीवन का आनन्द राग-द्वेष में ही है। अगर राग-द्वेष नहीं होता, ये लड़ाई झगड़े नहीं होते तो इतना लम्बा दिन कैसे बीतता? उसे जीने का कोई उपाय नहीं है। जब तक राग-द्वेष है, पूरा दिन मजे से बीत जाता है। लड़ाई में कितना समय गुजर जाता है, व्यक्ति को पता ही नहीं चलता। बाजार में तेज लड़ाई हो रही है। व्यक्ति दो घंटा खड़ा रह जाएगा। यदि उससे कहा जाए-तुम दस मिनट खड़े-खड़े ध्यान करो। उसका उत्तर होगा-मैं दस मिनट खड़ा नहीं रह सकता। लड़ाई देखने में बीता हुआ दो घंटा उसे दस मिनट जितना लगता है और ध्यान में बीते दस मिनट उसे दो घंटे जितने लगते हैं। क्या इस स्थिति में वीतरागता की बात की जाए? व्यक्ति सोचता है-वीतरागता की बात कितनी नीरस है। कैसे चौबीस घंटा बीतेगा? वह इसे सुनते-सुनते ऊब जाता है। इस स्थिति में, व्यक्ति की इस मनःस्थिति के परिप्रेक्ष्य में निर्वाण की चर्चा कहां तक सार्थक हो सकती है, यह एक गंभीर प्रश्न है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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