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________________ वह अपने देश में चला जाता है आज प्रातःकाल मैंने अनेक संतों से एक प्रश्न पूछा - 'क्या आप मोक्ष जाना चाहते हैं? क्या मोक्ष में जाने की चाह बहुत समझदारी की चाह है ?" अनेक व्यक्ति सोचते हैं-जब तक शरीर है तब तक सब कुछ है । व्यक्ति का मन थोड़ा-सा ऊब गया। वह अपने मित्र के पास चला गया। बातचीत की और मन हल्का हो गया। भूख लगी खाना, खा लिया, तृप्ति हो गई। प्यास लगी, ठंडा पानी मिला, प्यास बुझ गई, सुख का अनुभव हुआ। नींद आने लगी, सो गया, आराम की अनुभूति हुई । खाना-पीना, बातचीत करना, मित्रों के साथ गप्पें मारना - ये सब शरीर के साथ जुड़े हुए हैं। यदि शरीर नहीं होता तो ये सब निरर्थक हो जाते । व्यक्ति का जब मन होता है, वह टी.वी. देख लेता है, रेडियो सुन लेता है, मनोरंजन केन्द्र में चला जाता है। इस शरीर से आदमी क्या - क्या नहीं करता ! न्याय दर्शन में शरीर की परिभाषा की गई— भोगस्य साधनं शरीरम् — जो भोग का साधन है, वह शरीर है । जितना भोग भोगा जाता है, वह शरीर के द्वारा भोगा जाता है । इस स्थिति में जिसने अशरीर की कल्पना की, वह बहुत साहसी रहा होगा? सारे भोग के साधन को छोड़कर केवल आत्मा बन जाना क्या साहस का काम नहीं है? अशरीर का सिद्धांत सचमुच एक साहस का सिद्धांत है। क्या हम इस बात को भूल जाएं- शरीर नहीं तो कुछ भी नहीं? जब शरीर अस्वस्थ होता है तब भी यही कहा जाता है—शरीर स्वस्थ नहीं है, क्या करें, कुछ भी नहीं होता। ये सारे सुख स्वस्थ शरीर से जुड़े हुए हैं। क्या हम अशरीर बनकर इन सचाइयों को भुलाना चाहेंगे? मोक्ष : एक अवधारणा ७१ बहुत वर्ष पहले की बात है। आचार्यवर सुजानगढ़ में विराज रहे थे । बीदासर का एक व्यक्ति मेरे पास आया। मेरे पास और भी अनेक लोग बैठे थे । उसने कहा - 'महाराज ! सब लोग मोक्ष जाना चाहते हैं किन्तु मैं मोक्ष जाना नहीं चाहता।' मैं उस व्यक्ति से परिचित था इसलिए सुनकर भी मौन रहा । पास बैठे लोगों को उसका यह कथन अजीब लगा । उन्होंने पूछा- 'तुम मोक्ष जाना क्यों नहीं चाहते?” उसने तपाक से जवाब दिया- 'मोक्ष जाकर चमचेड़ ( चमगादड़ ) की तरह लटक जाने में क्या फायदा है? मोक्ष में जाने वाला व्यक्ति लोकाग्र में स्थित हो जाता है। वहां न कोई धर्म है और न कोई कर्म । कोई कार्य नहीं, कोई संबंध नहीं। ऐसा निकम्मा जीवन जीने में क्या आनन्द है? इसलिए मैं इस संसार में ही रहना चाहता हूं, संसार में रहते हुए नरक मिले तो भी चिन्ता नहीं है ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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