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महावीर का पुनर्जन्म ध्यान के प्रति आकर्षण नहीं जागता। जब बाह्य आकर्षण से मुक्ति पा लेते हैं तब अंतरंग योग बनता है।
जब प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय और ध्यान अंतरंग बनते हैं, इनकी पृष्ठभूमि में छिपी हुई वृत्तियों का रेचन होता है तब शरीर का व्युत्सर्ग संभव बनता है। जब शरीर का व्युत्सर्ग होता है, भेद-विज्ञान की चेतना जागती है, तब अंतरंग योग प्रबल बनता है। अंतरंग तपोयोग का मूल अर्थ है-भेद-विज्ञान की चेतना का जागरण।
'मैं आत्मा हूं' 'पदार्थ मैं नहीं हूं'-जब यह अनुभूति प्रखर बनती है, तब व्यक्ति अपने अस्तित्व की तलाश में आगे बढ़ता है। 'मैं हूं' इसकी अनुभूति स्पष्ट होती चली जाती है। सुप्रसिद्ध दार्शनिक देकार्ते ने कहा- 'मैं सोचता हूं इसलिए मैं हू' इस तर्क को बहुत मूल्य दिया गया। किन्तु अस्तित्ववादी दार्शनिकों ने इस तर्क को उलट कर प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा-'मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं,' यह तर्क सही नहीं है। तर्क यह होना चाहिए– 'मैं हूं इसलिए मैं सोचता हूं।' कितना अंतर आ गया! मैं हूं इसलिए मैं सोचता हूं-इसमें अस्तित्व प्रधान है
और सोचना गौण है। मैं सोचता हूं इसलिए मै हूं इसमें सोचना प्रधान है और अस्तित्व गौण है। मुख्य होना चाहिए अस्तित्व। अंतरंग तपोयोग का अर्थ . है-अपने अस्तित्व को तलाशना, अपने अस्तित्व तक पहुंच जाना। यह कहना चाहिए--मैं हूं इसलिए मैं सोचता हूं, यह अंतरंग तपोयोग है। मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं, यह बहिरंग तपोयोग है। इन दोनों का समन्वय कर चलें तो साधना की परिपूर्ण पद्धति फलित होगी।
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