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________________ अंतरंग योग ४३३ आदमी स्वार्थ का विसर्जन नहीं कर पाता। उसमें अहंकार और ममकार प्रबल बना हुआ है। वह स्वार्थ चेतना को पैदा करता है। सेवा का अर्थ इतना ही नहीं है कि किसी को पानी की जरूरत है, पानी पिला दें। किसी को बुखार है, उसे दवा दिला दें, उसका कोई शारीरिक काम कर दें। ये सारी स्थूल बातें हैं। सेवा का अर्थ है-उस चेतना का जागरण, जिसमें अपनी सुख-सुविधा और अपने स्वार्थ का विसर्जन हो जाए, हम दूसरों के लिए समर्पित हो जाएं। सेवा में अंतरंगता का भाव तब जागता है, जब उसके साथ व्युत्सर्ग जुड़ता है। व्युत्सर्ग के बिना सेवा की कोई सार्थक निष्पत्ति संभव नहीं है। प्रायश्चित्त के साथ व्युत्सर्ग जुड़ा हुआ है। विनय के साथ व्युत्सर्ग जुड़ा हुआ है। स्वाध्याय के साथ व्युत्सर्ग जुड़ा हुआ है। अन्तरंग तपोयोग कब? हर कोई व्यक्ति स्वाध्याय नहीं कर सकता। प्रत्येक व्यक्ति आराम चाहता है। आराम और आलस्य स्वाध्याय में बड़ी बाधाएं हैं। व्यक्ति का ज्यादा रस प्रमाद में है, विकथा में है। व्यक्ति इधर-उधर की बात करता है, बड़ा रस आता है। वह समझता है--मैं कृतार्थ हो गया, मेरा जीवन धन्य हो गया। एक पुस्तक लेकर बैठने में उसे सार्थकता नहीं लगती। जब तक प्रमाद और आलस्य का विसर्जन नहीं होता, विकथा-स्त्री कथा, देश कथा, राज कथा आदि-आदि का व्युत्सर्ग नहीं होता, निन्दा, चुगली, पर-परिवाद का परिहार नहीं होता तब तक स्वाध्याय हो नहीं सकता। जब इन सबका व्युत्सर्ग होता है तब स्वाध्याय के प्रति रुचि जागती है, आकर्षण पैदा होता है। अन्यथा तत्त्वज्ञान इतना रूखा है, जिसके प्रति रस पैदा होना मुश्किल है। कालूगणी कहा करते थे-व्याकरण पढ़ना अलूणी शिला को चाटना है। व्याकरण पढ़ने में कोई रस नहीं है, स्वाद नहीं है। व्याकरण पढ़ने में पहले कोई रस पैदा नहीं होता। आचार्यश्री ने प्रमाणनयतत्त्वलोकालंकार ग्रन्थ का अध्ययन शुरू किय। आचार्यश्री ने मुझे कहा-तुम भी इसे सुना करो। चार मास तक उसका पाठ चला होगा। मैं भी चार मास तक सुनता रहा। यदि हमसे चार मास बाद कोई पूछता-इन चार महिनों में क्या समझा तो हमारा उत्तर होता-कुछ भी नहीं। जब तक व्यक्ति का रस दूसरी चीजों मे अटका रहता है, हंसी-मजाक, कुतूहल, उत्सुकता आदि-आदि के साथ जुड़ा रहता है तब तक व्यक्ति के लिए स्वाध्याय भी नीरस विषय होता है। इन सबका व्युत्सर्ग करें तो स्वाध्याय में रस आएगा, वह अंतरंग तपोयोग बन पाएगा। अंन्तरंग तपोयोग : मूल अर्थ व्युत्सर्ग के बिना ध्यान भी संभव नहीं है। जो व्यक्ति सोचता है-ध्यान का अर्थ है-निकम्मा और निठल्ला बैठना, उसका ध्यान करने में रस नहीं है। उसका चिन्तन होता है-आंख मूंदने में कौन-सा रस है? क्या आंख मूंदने के लिए मिली है? आंख जगत को देखने के लिए है। कितने सुन्दर मकान हैं! कितने सुन्दर पेड़ हैं! कितने मनोहर पदार्थ हैं! उन्हें देखने में कितना रस है! जब तक इन बाह्य पदार्थों के प्रति आकर्षण का विसर्जन नहीं होता तब तक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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