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महावीर का पुनर्जन्म
लिखे-अध्यात्मोपनिषद्, अध्यात्म योग समुच्चय आदि-आदि। उनके अध्यात्म संबंधी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ आज भी योग साहित्य में अपनी गरिमा बनाए हुए हैं।
विद्वान के साथ योगी होना जरूरी है। बहिरंग योग के साथ अंतरंग योग का होना जरूरी है। केवल एक से काम नहीं चलता। इसीलिए कहा गया-तपस्या करो, आसन करो, इन्द्रिय-संयम करो। किन्तु इसके साथ-साथ आत्मानुभूति में भी जीओ। जब तक आत्मानुभूति है, तब तक इन सबकी सार्थकता है। वह नहीं है तो कुछ भी नहीं होगा। जब तक आत्मानुभूति नहीं जागेगी, आत्मीयभाव नहीं जागेगा तब तक जीवन में रस नहीं आएगा।
अंतरंग साधना की निष्पत्ति है-व्युत्सर्ग। निर्जरा का अन्तिम प्रकार है-व्युत्सर्ग। वह निष्पत्ति का क्षण है। जब तक व्युत्सर्ग समझ में नहीं आता तब तक साधना का अर्थ समझ में नहीं आता। कठिन है स्वार्थ का विसर्जन
एक प्रश्न होता है-अंतरंग योग में सेवा को स्थान क्यों दिया गया? सेवा को इतना महत्त्व क्यों दिया गया? इसका क्या कारण है? कहा गया-'सेवा करने वाला महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। इसका रहस्य क्या है? सेवा में स्वार्थ का कितना व्युत्सर्ग करना होता है! स्वार्थ विसर्जित होने पर ही सेवा अंतरंग योग में परिणत होती है। जब सब कुछ व्युत्सर्ग किया जाता है तब सेवा संभव बनती है। एक व्यापक तत्त्व है व्युत्सर्ग। जैन साधना पद्धति का महान सूत्र है-व्युत्सर्ग-अपने आपको छोड़ते चले जाना। भीतर जो भरा हुआ है, उसे छोड़ते चला जाना, उसका विसर्जन करते चले जाना किन्तु यह बात बहुत कम समझ में आती है। बहुत कठिन है स्वार्थ का विसर्जन।।
पति मर गया। पत्नी रो रही थी। पति के बहुत सारे मित्र इकट्ठे हो गए, परिवार के लोग इकट्ठे हो गए। पत्नी रोती जा रही थी और बोलती जा रही थी-'हे पतिदेव! तुम चले गए। अब तुम्हारी इतनी बढ़िया तेज दौड़ने वाली घोड़ी पर कौन सवार होगा?'
पास ही एक मित्र बैठा था। उसने कहा-'चिन्ता मत करो! मैं चढूंगा।'
रोते हुए उसका गीत जारी था-'तुम्हारा इतना सुन्दर हार पड़ा है। इसे कौन पहनेगा?'
'चिन्ता मत करो। उसे भी मैं पहन लूंगा।'
उसका विलाप थमा नहीं-'पतिदेव! चले गए। इतना बड़ा कारोबार, इतनी दुकानें, इन्हें कौन संभालेगा? इनका मालिक कौन होगा?'
'मैं संभाल लूंगा। मैं मालिक बन जाऊंगा।'
उसने आगे कहा-'दस हजार का कर्ज चुकाना बाकी रह गया है, उसे कौन चुकाएगा?'
इस बार कोई नहीं बोला। सब चुप रह गए।
आखिर उस मित्र ने कहा-'इतने सारे काम मैंने ओढ़ लिए। इस काम को तो कोई और ओढ़े। क्या मैं अकेला ही सारे काम ओढ़ता रहूंगा?'
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