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________________ ४३१ अंतरंग योग विद्वानों को चमत्कृत कर दिया। उन्होंने काशी के विद्वानों के सामने आठ अवधान प्रस्तुत किए। उनमें एक था श्रुति-पाटव कला। एक ही आकार-प्रकार की पीतल की पचास कटोरियां रखी गई। एक विद्वान आता, एक कटोरी के डंडा मारता। यशोविजयजी डंडे से होने वाली आवाज को अपने मानस में केन्द्रित कर लेते। उसके बाद एक-एक विद्वान खड़ा होकर एक-एक कटोरी को डंडा मारता। यशोविजयजी बता देते-यह पच्चीसवीं कटोरी की आवाज है, यह चालीसवीं कटोरी की आवाज है। इस प्रकार केवल ध्वनि के आधार पर वे कटोरी को पहचान लेते। कितनी विचित बात है! दसवीं कटोरी की ध्वनि कैसी है, पचासवीं कटोरी की ध्वनि कैसी है, इसे पहचानना कितना कठिन है! ऐसे व्यक्ति की मेधा कितनी सूक्ष्म होती है। श्रुति-पाटव कितना विलक्षण होता है। ग्रहणशक्ति कितनी तीव्र होती है। __वे बहुत विद्वान थे। उत्तराध्ययन के एक चरण-संजोगाविप्पमुक्कस्स पर चार मास तक प्रतिदिन व्याख्यान देते रहे। एक पंक्ति का चार मास तक विश्लेषण करना अदभूत पांडित्य का परिचायक है। एक बार एक श्राविका ने अनुरोध किया-'महाराज! आपको आनन्दघनजी से मिलना चाहिए।' वह श्राविका जानती थी—मेरे गुरु विद्वान बहुत हैं पर साधक नहीं हैं। इनका अहंकार छूटा नहीं है। इन्हें अपने ज्ञान का, अपनी उत्कृष्टता का बहुत अहंकार है। इसका कारण है-इनमें साधना का भाव नहीं जागा है, अध्यात्म का अनुराग पैदा नहीं हआ है। यशोविजयजी ने श्राविका की बात मान ली। वे आनन्दघनजी से मिले। उनका अहंकार प्रबल बना हुआ था। उन्होंने कहा-'आनन्दघनजी महाराज! मैं आपको कुछ सुनाना चाहता हूं।' आनन्दघनजी बोले-'बोलिए! क्या कहना चाहते हैं?' यशोविजयजी ने 'धम्मो मंगलमुक्क्लृि '-इस पद्य के पचास अर्थ प्रस्तुत किए। आनन्दघनजी ने देखा-यह पढ़ा लिखा है, विद्वान है, जैन मुनि है पर साधक नहीं है, अध्यात्मयोगी नहीं है। इसके भीतर अध्यात्म नहीं जागा है, अहंकार का विमोचन नहीं हुआ है। आनन्दघनजी तपे हुए साधक थे, अध्यात्म योगी थे। उनकी प्रज्ञा जागृत थी। वे बोले-'यशोविजयजी! इतना अहंकार है! पचास अर्थ करके अहंकार करते हो!' आनन्दघनजी ने धम्मो मंगलमुक्किटें इस पद्य के अर्थ करने शुरू किए और वे उसके अर्थ करते ही चले गए। यशोविजयजी उनके सामने ताकते रह गए। उनका सिर झुक गया। वे आनन्दघनजी के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने कहा-'महाराज! मुझे क्षमा करें। मेरा अहंकार चूर-चूर हो गया है। आप जिस स्थिति तक पहुंचे हुए हैं, मैं उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। आपने मेरी आंखे खोल दीं।' यशोविजयजी का जीवन बदल गया। उन्होंने अध्यात्म की दिशा में प्रस्थान किया, अध्यात्म योगी बने। उन्होंने अध्यात्म के अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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