________________
४३०
महावीर का पुनर्जन्म
बुद्धि, बल और विवेक तीनों आगे बढ़े। विवेक ने देखा-एक हट्टा-कट्टा जवान आदमी खेत में काम कर रहा है। वह शक्तिशाली था किन्तु बुद्धिमान नहीं था। तीनों उस जवान के पास पहुंचे। विवेक ने कहा-'भैया! तुम बहुत शक्तिशाली हो। क्या तुम हमारा एक काम कर दोगे?'
__'हां! अभी कर दूंगा।'
'यह लोहे की कील टेढ़ी हो गई है। इसे सीधा करना है। हम कमजोर आदमी हैं। आप इस हथौड़े से इसे सीधा बना दें।'
जवान ने हथौड़ा हाथ में लिया। कील को रेतीले टीले पर रखा और उस पर हथौड़े से एक जोरदार प्रहार किया। उस तेज प्रहार से रेत उड़ी और वह सबकी आंखों में भर गई। कील भूमि के अंदर तक चली गई।
विवेक ने बल से कहा-'जब बल होता है बुद्धि नहीं होती तब यह स्थिति बनती है।'
बल और बुद्धि दोनों का अहंकार आहत हो उठा। तीनों वहा से आगे बढ़ें।
विवेक ने देखा, एक आदमी खड़ा है। वह जवान है और चेहरे से बुद्धि-संपन्न होने की सूचना मिल रही है। विवेक ने उससे कील को सीधा करने का अनुरोध किया और उसके हाथ में हथौड़ा थमा दिया। उस व्यक्ति ने कील को एक पत्थर पर रखा और हथौड़े से उस पर प्रहार किया। कील सीधी हो गई। उसमें बल भी था और बुद्धि भी थी।
विवेक ने बल और बुद्धि से कहा- 'तुम झगड़ो मत! तुम यह मानो-अकेला कोई बलवान नहीं है। जब दोनों मिलते हैं तब व्यक्ति बलवान बनता है। बलवान वही है, जिसमें बल और बुद्धि-दोनों का समन्वय है।' अंतरंग : बहिरंग
हम बहिरंग और अंतरंग में भेदरेखा न खींचें। यदि बिल्कुल भेदरेखा खींच दी जाएगी तो न कील सीधी होगी और न काम बनेगा। बहिरंग और अंतरंग योग-यह एक स्थूल भेदरेखा है। वस्तुतः ये दोनों साथ-साथ चलते हैं। बहिरंग योग के बिना अंतरंग योग और अंतरंग योग के बिना बहिरंग योग सार्थक नहीं होता। दोनों की सार्थकता दोनों के समन्वय में है। स्वाध्याय, ध्यान
और व्युत्सर्ग को अंतरंग योग माना गया। वस्तुतः अंतरंग योग है आत्मानुभूति। जीवन में आत्मानुभूति का जो क्षण है, जिस क्षण में आत्मा विजातीय द्रव्यों से हटकर अपने स्वरूप में जीती है, उस क्षण में अंतरंग तपोयोग होता है। मानना चाहिए-जब आत्मा अपने पारिणामिक भाव में रहती है तब अंतरंग योग घटित होता है। शेष सारे उसके साधन हैं, उस तक पहुंचने वाले माध्यम हैं। व्यक्ति कितना ही पढ़-लिख ले किन्तु जब तक आत्मानुभूति का क्षण नहीं जागता, वह
अहंकार और ममकार से मुक्त नहीं होता। विद्वत्ता और अहंकार
उपाध्याय यशोविजयजी जैन परम्परा के प्रसिद्ध सन्त हुए हैं। वे लघु हरिभद्र सूरि की उपाधि से विभूषित हुए थे। उन्होंने अपने पाटव से काशी के Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org