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________________ महावीर का पुनर्जन्म ' तत्संबंधी - राग-द्वेष के निमित्त से होने वाला कर्म-बंधन नहीं करता तथा पूर्वबद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है।' यह एक बिल्कुल नई बात है । वे ही इन्द्रियां कर्म - बंधन की हेतु भी हैं और उनके निर्जरण का हेतु भी । इस संदर्भ में हम संविज्ञान चेतना और संवेदन चेतना को अलग-अलग समझें । हमने आंख से देखा, केवल देखा। यह संविज्ञान चेतना है— ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्म का क्षयोपशम है। यदि हमने उसके साथ संवेदन की चेतना को जोड़ दिया, प्रियता और अप्रियता की चेतना को जोड़ दिया तो मोहनीय कर्म जुड़ गया। इस स्थिति में संविज्ञान चेतना गौण हो गई और संवेदन की चेतना प्रधान। इसका अर्थ यह हुआ - आवरणीय कर्म के साथ-साथ मोहनीय कर्म का बंध हो गया । इससे न तन्निमित्तक कर्म का बंध रुकता है और तन्निमित्तक पूर्वकृत कर्म का बंध क्षीण होता है । जो व्यक्ति आंख से केवल देखता है, संविज्ञान करता है, किन्तु उसके साथ संवेदना की चेतना को नहीं जोड़ता, वह चक्षु से संबंधित नए कर्म का अर्जन नहीं करता और पूर्व बद्ध चक्षु से संबंधित कर्म को क्षीण कर देता है । जितेन्द्रियता में बाधा हम मूल बात को समझें- प्रिय-अप्रिय, मनोज्ञ-अमनोज्ञ से कैसे दूर रह सकें? इन्द्रिय-विजय में बाधा है मनोज्ञ-अमनोज्ञ की चेतना । जब तक व्यक्ति की यह चेतना जागृत है, इन्द्रिय-विजय संभव नहीं हो सकती। हम साधना कहां से शुरू करें। हम उसके लिए बाड़, दीवार या कांटें लगाएं पर ध्यान केवल उसी पर केन्द्रित न रहे । ध्यान इस पर केन्द्रित होना चाहिए - अंगूरों के बाग की सिंचाई ठीक हो रही है या नहीं? मनोज्ञता या अमनोज्ञता का भाव कम हो रहा है या नहीं? हमें उस भाव का निग्रह करना है। यह नहीं बताया गया, आंख का निग्रह करो, कान एवं जीभ का निग्रह करो । यह भी नहीं बताया गया, रूप का निग्रह करो । किन्तु यह कहा गया, राग-द्वेष का निग्रह करो, प्रिय-अप्रिय एवं मनोज्ञ-अमनोज्ञ भाव का निग्रह करो। हमारी साधना का बिन्दु यह है । यदि इस बिन्दु को नहीं पकड़ा और केवल सुरक्षा में अटके रहे तो शायद उलझ जाएंगे । महामात्य कौटिल्य ने लिखा 'अवश्येन्द्रियः चातुरंतो ऽपि राजा सद्यो विनश्यति - जिसकी इन्द्रियां वश में नहीं हैं, वह चातुरन्त राजा भी सद्य विनाश को प्राप्त होता है । चक्रवर्ती कहलाता है चातुरन्त राजा । इतना शक्तिशाली राजा भी इन्द्रियों का वशवर्ती होने पर नष्ट हो सकता है। एक राजा के लिए इन्द्रिय-जय बहुत जरूरी है। प्रश्न आया - इन्द्रियजय किसे माना जाए? कौटिल्य अर्थशास्त्र में कहा गया- इन्द्रियजयः कामक्रोधमानमदहर्षत्यागात् कार्य:- काम, क्रोध, लोभ, मान, मद और हर्ष - इन छह का त्याग कर इन्द्रियों को विजित किया जा सकता है। कौटिल्य ने छह घटनाओं के निदर्शन भी प्रस्तुत किए हैं। कौन सम्राट काम के कारण नष्ट हो गया ? कौन लोभ और मद के कारण नष्ट हो गया? कौटिल्य ने इसे विस्तार से प्रस्तुति दी है। ४२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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