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________________ ६८ जीतो इन्द्रियों को खेती अंगूरों की और बाड़ कांटों की । यह दृश्य एक युवा श्रेष्ठी को बहुत अटपटा लगा। एक ओर अंगूर की बेलों को देखकर उसने सोचा- कितना मनोरम दृश्य है । दूसरी ओर कांटों की बाड़ को देखकर सोचा-ये कांटे इसकी मनोरमता का विनाश कर रहे हैं। युवा श्रेष्ठी ने अपने कर्मकरों से कहा - 'यह क्या? एक ओर इतने कोमल, मधुर और सुगंध से भरपूर अंगूरों के गुच्छे लटक रहे हैं तो दूसरी ओर कांटे ही कांटे हैं। यह अच्छा नहीं लगता। तुम इस कांटों की बाड़ को हटाओ।' कर्मकर बोले- 'मालिक ! आप नए नए आए हैं। आपको इसका अनुभव नहीं है । यदि कांटे नहीं रहेंगे तो अंगूर भी नहीं रहेंगे ।' श्रेष्ठी ने कहा- 'अंगूरों के आस-पास यह कांटों की बाड़ बहुत खराब लगती है। इससे उद्यान की रमणीयता नष्ट हो रही है। तुम इसे हटाओ ।' कर्मकर क्या करते, उन्होंने बाड़ को हटा दिया। बाड़ हटी और दो चार दिन में अंगूर भी हट गए। बाग खुला पड़ा था। जो भी आया, अंगूर तोड़कर चलता बना। बाग उजड़ गया। एक व्यक्ति ने अंगूरों का बाग लगाया और सारा ध्यान सुरक्षा पर केन्द्रित कर दिया । उसने सोचा - दीवार इतनी मजबूत बननी चाहिए कि उसमें कोई भी प्रवेश न कर सके। उसने बहुत ऊंची और सुदृढ़ दीवार बना दी किन्तु अंगूरों की सिंचाई पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया । उद्यान सुरक्षित हो गया, उसके भीतर न कोई मनुष्य घुस सका और न कोई पशु । पर पर्याप्त सिंचाई के अभाव में अंगूर लगे ही नहीं । ये दोनों घटनाएं सामने हैं। इसका निष्कर्ष है— मूल पर ध्यान और बाड़ पर ध्यान — दोनों एकांगी दृष्टिकोण हैं। केवल सिंचाई पर केन्द्रित दृष्टिकोण भी अधूरा है और केवल बाहरी सुरक्षा पर केन्द्रित दृष्टिकोण भी अधूरा है । परिपूर्ण दृष्टिकोण यह है- भीतर की सिंचाई चले और बाह्य बाड़ भी मजबूत रहे । ये दोनों बातें होती हैं तब निष्पत्ति प्राप्त होती है । इन्द्रिय-विजय का सूत्र जहां इन्द्रिय विजय का प्रश्न है, वहां भी इन दोनों बातों पर ध्यान देना होगा । मूल ध्यान देना है निग्रह पर । इन्द्रियां अपने आप में जटिल समस्या है। ये ही ज्ञान के स्रोत हैं और ये ही राग-द्वेष के निमित्त हैं। एक ही आंख से हमें देखना है। देखने का एक रूप है संविज्ञान चेतना । उसका दूसरा रूप है संवेदन चेतना । संविज्ञान और संवेदन- दोनों चेतनाओं का दरवाजा एक है। दरवाजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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