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________________ धागे में पिरोई हुई सूई ४१५ वायुयान और स्पुतनिक बने हैं, अणुबम और परमाणु पनडुब्बियां बनी हैं, इन सबका विकास किसके आधार पर हुआ है? यदि नियम का ज्ञान नहीं होता तो आदमी अणुबम से ही नहीं, बिजली से भी मर जाता। बिजली के ऊपर खोल नहीं होता है तो वह भी व्यक्ति के लिए खतरा बन जाती है। अनेक लोग तार को छूकर करंट से मर गए। यह सारा नियमों के ज्ञान से हुआ है। जोधपुर में प्रेक्षाध्यान का शिविर था। कलकत्ता से दो व्यक्ति उस शिविर में आए। उन्होंने शिविर के पहले दिन कहा-'महाराज! हमारा मन इतना चचंल और विक्षिप्त है कि एक क्षण भी टिकता नहीं है। हम इस चंचलता की समस्या से बहुत परेशान हैं। हम मन को एकाग्र करने के लिए आपकी शरण में आए हैं।' उन्होंने दस दिन प्रेक्षाध्यान का निष्ठा से अभ्यास किया। शिविर पूरा हो गया। जाते समय वे भावविभोर हो उठे-'महाराज! हमारी समस्या समाहित हो गई। चंचलता क्यों होती है, यह प्रश्न दस दिन के शिविर से समाहित हो गया है। हमारा मन बर्फ की भाति जम गया है, उसमें कहीं कोई तरलता नहीं रही।' एक व्यक्ति कहता है-मेरा मन अत्यधिक चंचल है। वही व्यक्ति दस दिन बाद कहता है-मेरा मन चंचल नहीं है। इसका कारण क्या है? मन एकाग्र कैसे हो गया? इसका रहस्य है नियमों का ज्ञान। जिसने नियम को जान लिया, उसका मन एकाग्र हो गया। जिसने नियम को नहीं जाना, उसका मन एकाग्र नहीं होता। मन को एकाग्र करने और पवित्र बनाने के नियम हैं। वे सारे अध्यात्म से जुड़े नियम हैं। हम उनको जानें, पुरुषार्थ करें, मन एकाग्र हो जाएगा। धर्म का क्षेत्र हो या कर्म का क्षेत्र, सबके अपने-अपने नियम हैं। सबसे पहले नियमों का ज्ञान जरूरी है, ज्ञान संपन्न होना जरूरी है। महावीर से गौतम ने पूछा-'भंते! जीव ज्ञान-संपन्नता से क्या प्राप्त करता है?' भगवान ने कहा-'गौतम ! ज्ञान-संपन्नता से जीव सब पदार्थों को जान लेता है। ज्ञान-संपन्न जीव चार गति रूप चार अंतो वाली संसार अटवी में विनष्ट नहीं होता। ज्ञान-संपन्न जीव अवधि आदि विशिष्ट ज्ञान, विनय, तप और चरित्र के योगों को प्राप्त करता है तथा स्व-समय और पर-समय की व्याख्या या तुलना के लिए प्रामाणिक पुरुष माना जाता है।' सूई और धागा भगवान महावीर ने इस सचाई को सूई और धागे के दृष्टांत द्वारा प्रस्तुत किया। जिस प्रकार सूत्र-धागे में पिरोई हुई सूई गिरने पर भी गुम नहीं होती, उसी प्रकार ससूत्र-श्रुत-संपन्न जीव संसार में रहने पर भी विनष्ट नहीं होता जहा सुई ससुत्ता, पडिया वि न विणस्सइ। तहा जीवे ससुत्ते, संसारे न विणस्सइ।। ज्ञान-संपन्नता के बिना केवल क्रिया करें तो शायद वह भी नहीं मिलेगा, जो मिलना चाहिए। जैन दर्शन की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि उसने केवल क्रिया को मूल्य नहीं दिया। वह क्रिया, जो ज्ञान रहित है, समस्या भी बन सकती है। समाचार पत्र में पढ़ा-एक छोटी-सी लड़की है, सिर पर कई घड़े रख लेती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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