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________________ ४०६ महावीर का पुनर्जन्म 'महाराज! जो आप आदेश देंगे वही करूंगा। आप मेरे स्वामी है, मैं आपका सेवक हूं।' ‘शिवा! जाओ! तुम हाथ में झोली ले लो, हम गांव में भिक्षा मांगने के लिए जाएं।' शिवाजी स्वाभिमानी व्यक्ति थे। पर आज गुरु के आदेश पर झोली लेकर चल पड़े। भिक्षा लेकर वापस नदी तट पर आए। गुरु रामदास ने कहा-'शिवा! यह राज्य मेरे किस काम का है। मैं संन्यासी हूं, साधक हूं। मुझे इससे क्या? इसे तुम्हीं संभालो।' 'महाराज! मैंने इसे आपके चरणों में समर्पित कर दिया है। मैं इसे कैसे संभालूं? यह मेरा है ही नहीं।' शिवाजी राज्य लेना नहीं चाहते हैं और रामदास देना चाहते हैं। दोनों अपने आग्रह पर डटे रहे, समस्या सुलझी नहीं। रामदास ने अपनी झोली फाड़ी और एक डंडे पर उसे बांधकर शिवाजी को देते हुए कहा-'शिवा! तुम इस ध्वज को ले जाओ और मेरे प्रतिनिधि के रूप में राज्य का शासन संभालो।' त्याग है बड़ी शक्ति यह त्याग की शक्ति बताने वाला प्रसंग है। त्याग में जो शक्ति है, वह भोग में कभी नहीं आ सकती। जितनी प्रतिक्रियाएं हैं, वे भोग से जुड़ी हुई हैं। भोगी बटोरता है और त्यागी छोड़ता है। व्यक्ति कितना ही बड़ा भोगी बन जाए, वह बटोरता चला जाएगा। एक व्यक्ति करोड़पति बन जाए तो अरबपति बनने की सोचेगा और अरबपति खरबपति बनने के सपने देखेगा। बटोरने की कोई सीमा ही नहीं है। व्यक्ति इकट्ठा करता चला जाता है। दुनिया के जितने बड़े लोग हैं, वे प्रायः उतना ही भ्रष्टाचार करने वाले हैं। उनके पास अपार संपत्ति है। वे इतने बड़े भ्रष्टाचार में लिप्त हैं कि छोटा आदमी तो कल्पना भी नहीं कर सकता। समाचार पत्रों में पढ़ा-शस्त्रों की दलाली करने वाले, शस्त्रों के सौदागर बड़े बड़े धनपति बने हुए हैं। उन्होंने कितने काले कारनामें किए हैं, कितनी धोखाधड़ी और कितना अन्याय किया है। सब कुछ इसलिए किया कि प्रत्याख्यान की चेतना जागृत नहीं थी। बड़े से बड़ा अन्याय, भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी वही कर सकता है, जिसने त्याग का महत्त्व नहीं समझा है। जब त्याग की चेतना जागती है, प्रत्याख्यान करने की शक्ति आ आती है। यदि पूछा जाए-दुनिया में सबसे बड़ी शक्ति कौन-सी है? तो उत्तर होगा-त्याग की शक्ति। त्याग की शक्ति के सामने कोई शक्ति जीत नहीं सकती। जहां त्याग की शक्ति जाग जाती है, वहां सबको झुकना पड़ता है। संस्कृत साहित्य की कथा है। एक कवि राजमहल के नीचे से जा रहा था। राजा ने झरोखे से नीचे झांक कर पूछा-'को भवान-आप कौन हैं?' विद्वान ने कहा-'घटोऽहं-मैं घड़ा हूं।' राजा ने सोचा-यह बहत अभिमानी व्यक्ति है। यह बताना चाहता है-जैसे घड़े में सब समा जाता है वैसे ही मुझमें सब विद्याएं समाई हुई हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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