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खोए सो पाए
प्रश्न उपस्थित हुआ-समर्थ कौन है? समर्थ किसे माना जाए? क्या समर्थ वह है, जिसके पास संपति है या वह है जिसके पास सत्ता है, शस्त्रों का अंबार है? यदि धन-संपदा से व्यक्ति समर्थ होता तो एक राज्य कर्मचारी के पीछे-पीछे चक्कर नहीं लगाता। सत्ता पर बैठा व्यक्ति धन के पीछे चक्कर लगा रहा है। यदि शस्त्रयुक्त व्यक्ति संपन्न होता तो शस्त्रों को छोड़ने की बात क्यों आती? क्या मध्यम दूरी तक मार करने वाले शस्त्रों को समुद्र में डुबोने की नौबत आती? यह बात इसीलिए आई है कि ये सब समर्थ नहीं हैं, त्राण देने वाले नहीं हैं। वस्तुतः दुनिया में समर्थ वह है, जिसमें प्रत्याख्यान की चेतना जागृत है। वह असमर्थ है, जो प्रत्याख्यान विवर्जित है।
स समर्थोस्ति यस्मिन् स्यात् प्रत्याख्यानस्य चेतना।
सोऽसमर्थो जनो योस्ति, प्रत्याख्यानविवर्जितः।।
समर्थ गुरु रामदास हाथ में झोली लिए भिक्षा लेने जा रहे थे। वे छत्रपति शिवाजी के गुरु थे। शिवाजी ने देखा-गुरुदेव हाथ में भिक्षापात्र लिए घूम रहे हैं, नगर में चक्कर लगा रहे हैं। शिवाजी ने सोचा-यह क्या? मैं इतना बड़ा राजा और ये मेरे गुरु! मैं राजप्रसाद में आनंद से रह रहा हूं और ये भिक्षा के लिए भटक रहे हैं! शिवाजी तत्काल नीचे आए। गुरु रामदास को प्रणाम कर निवेदन किया—'आप कहां जा रहे हैं?'
'शिवा! मैं भिक्षा के लिए जा रहा हूं।' 'क्या आप मेरे घर नहीं आएंगे?' 'शिवा! चलो, तुम्हारे घर भी चलेंगे।'
गुरु रामदास शिवाजी के साथ महल में आए। शिवाजी ने एक कागज पर कुछ लिखा और उसे गुरु रामदास के पात्र में डाल दिया।
रामदास बोले-'शिवा! यह क्या दिया?' 'भिक्षा दी है।'
'शिवा! कुछ आटा देते तो रोटी बनाकर खा लेता। मैं इस कागज का क्या करूंगा?'
'महाराज! पहले आप कागज को पढ़ें।'
गुरु रामदास ने पढ़ा-'मेरा राज्य आपके चरणों में समर्पित है।' पत्र पढ़कर रामदास ने विस्फारित नेत्रों से शिवाजी को निहारते हुए कहा-'शिवा! तुमने पूरा राज्य मुझे दे दिया। अब क्या करोगे?'
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