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________________ ६४ पढ़ें अपने आपको भी आज तक जितना विकास हुआ है वह क्रिया से हुआ है। क्रिया के बिना कोई विकास संभव नहीं है। जितनी क्रिया हुई है वह ज्ञान के द्वारा हुई है। विकास का मूल है-कर्म और कर्म का मूल है-ज्ञान। ज्ञान भीतर से भी फूटता है और बाहर से भी आता है। ऐसे लोग बहुत कम होते हैं जिनकी भीतर की आंख खुल जाए। ऐसे लोग भी कम हैं जो स्वयं अपनी भीतर की आंख खोल लें। चक्षुष्मान् होने के लिए पढ़ना जरूरी है। दो शब्द हैं-अध्ययन और स्वाध्याय। वर्तमान की जो पढ़ाई है, उसे अध्ययन कहा जाता है। स्वाध्याय उससे भिन्न है। यह शब्द गरिमापूर्ण अर्थ की अभिव्यक्ति देता है। प्राचीन आचार्यों ने स्वाध्याय के साथ आत्मा को जोड़ दिया। लौकिक विद्या पढ़ना अध्ययन है और आध्यात्मिक चेतना को जगाना स्वाध्याय है। कछ बातें पढने से आती हैं। कछ बातें कर्मजा बद्धि से आती हैं, कुलजात परंपरा से आती हैं। फिर भी विधिवत ज्ञान करना, पढ़ना जरूरी है। चाहे लौकिक विद्या हो या आध्यात्मिक विद्या उसके विकास के लिए विधिवत ज्ञान करना आवश्यक है। इससे ही विकास की नई संभावनाएं उभरती हैं। आज विद्या की जितनी शाखाएं हैं, उतनी शाखाएं प्राचीन काल में नहीं थीं। प्राचीन साहित्य में सप्तभौम-सप्तमंजिल मकानों का विवरण प्राप्त होता है। परन्तु आज तो सैकड़ों मंजिल के मकान निर्मित हो रहे हैं। यह विकास अध्ययन के आधार पर हुआ है। आज अध्ययन बहुत बढ़ा है, स्वाध्याय घटा है। इसका कारण है कि विद्या का लक्ष्य बन गया भौतिक पदार्थ का विकास। आज की विद्या शरीर और पदार्थ की परिक्रमा कर रही है। स्वाध्याय का अर्थ है-लौकिक विद्या के साथ-साथ अपने आपको पढ़ना। जो पढ़ने वाला है, उसके विषय में कोई नहीं जानता और जो पढ़ा जाता हैं, उसके विषय में बहुत कुछ ज्ञात है। दूसरे शब्दों में कहें तो ज्ञेय के विषय में जानकारी है, परन्तु ज्ञाता के विषय में कुछ भी जानकारी नहीं है। यह विचित्र अलगाव हो गया। आज यह अत्यन्त आवश्यक है कि प्रतिभा और प्रत्युत्पन्न मति का विकास हो। एक है पढ़ाई का ज्ञान, दूसरा है भीतर से फूटने वाला ज्ञान अर्थात प्रत्युत्पन्न मति। तीसरा है अध्यात्म का ज्ञान। यही है स्वाध्याय। यही है अपने आपको पढ़ना, ज्ञाता को जानना, जहां से ज्ञान की सारी रश्मियां निकलती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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