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________________ ३६६ महावीर का पुनर्जन्म वस्तुएं भी बहुत मिली। द्वेष से जितना खतरा नहीं होता, उससे अधिक रागात्मक भाव से खतरा पैदा हो जाता है। पूजा-प्रतिष्ठा, सम्मान और पदार्थों का योग-ये बहुत खतरा पैदा करते हैं। आचार्य के मन में कुछ संग्रह करने की भावना जाग गई। उस शहर में एक प्रमुख श्रावक था। उसका नाम था कुण्डली। बड़ा होशियार श्रावक था। उसने देखा-आचार्य के मन में लोभ जाग गया है, पदार्थों को इकट्ठा कर रहे हैं और यहां से जाने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। यह अच्छा नहीं है। उन्हें कुछ कहना चाहिए पर कहूं कैसे? कहने का भी एक तरीका होता है। अगर सीधा जाकर खीर में मूसल डाले तो मानने वाली बात भी नहीं मानी जाती है। कोई बात कैसे कहनी चाहिए, इस बात को जो नहीं जानता है. वह अर्थ के स्थान पर अनर्थ कर देता है। कुण्डली श्रावक एक दिन आचार्य के पास आया, वंदना कर बोला-'महाराज! मैंने गौतम को नहीं देखा, सुधर्मा स्वामी को भी नहीं देखा, जम्बू स्वामी को भी नहीं देखा, प्रभव को भी नहीं देखा। अनेक युगप्रधान आचार्य हुए हैं, उन्हें भी नहीं देखा पर जब आपको देखता हूं तो ऐसा लगता है, मैंने सबको देख लिया है। आप कितने तेजस्वी हैं, कितने यशस्वी हैं, कितने ज्ञानी हैं।' प्रशंसा भरे शब्दों से आचार्य को प्रसन्न कर दिया। उससे आगे कहा-'महाराज! आप ज्ञानी हैं। मैं आपसे एक गाथा का अर्थ पूछना चाहता हूं। आप उस गाथा का अर्थ बताएं।' आचार्य ने कहा-'बोलो!' कुण्डली श्रावक बोला दोसमयं मूलजालं प्रवररिसिविवज्जियं महादोसं। अत्थं वहसि अणत्थं, कीस अणत्थं तवं चरसि ।। आचार्य ने सोचा-इसका मूल अर्थ बताऊंगा तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा। आचार्य ने उसका अर्थ बदल दिया, दूसरा अर्थ बता दिया। कुण्डली श्रावक उस समय कुछ नहीं बोला। पांच-दस दिन बीते। कुण्डली श्रावक ने आचार्य से निवेदन किया-'महाराज! आपने उस दिन अर्थ फरमाया था पर वह मेरी समझ में नहीं आया। कृपा कर आप पुनः अर्थ बताएं। आचार्य ने पुनः दूसरा अर्थ बता दिया। वे बुद्धिमान थे, शब्दों को अर्थ के सांचे में ढालना जानते थे। एक श्लोक के अनेक अर्थ हो जाते हैं, दस, बीस और पचास अर्थ हो जाते हैं। एक आचार्य ने महाकाव्य बनाया--सप्तानुसंधान महाकाव्य-रामायण उससे पढ़ लो, महाभारत उससे पढ़ लो और तीर्थकर का चारित्र भी उसी में से पढ़ लो। उसके एक श्लोक के सात अर्थ निकलते हैं, उसमें सात व्यक्तियों का जीवन चरित्र एक साथ चलता है। श्रावक कुण्डली ने नए अर्थ को सुना, किन्तु बोला कुछ नहीं। कुछ दिन बाद उसने कहा-'महाराज! आप तो बड़े ज्ञानी हैं! आपने बड़ी कृपा की, अर्थ भी बताया पर मेरे गले नहीं उतरा। कोई बात मुश्किल से गले उतरती है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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