________________
ढक्कन व्रत के छेदों का
३६५
अतीत में लौटें
_ अतीत में लौटना बहुत महत्त्वपूर्ण है। हमारे वर्तमान कार्यक्रम के पीछे अतीत के कौन-से कर्म का विपाक काम कर रहा है? उस अवस्था तक पहुंच जाने का नाम है प्रतिक्रमण। कार्य को आधार बना कर कारण की खोज करना प्रतिक्रमण है। एक दिन में न जाने कितने भाव आते हैं। उन सारे भावों के कारण की खोज करना प्रतिक्रमण है। जिस समय जो भाव आया उसका तत्काल प्रतिक्रमण करें। यह भाव क्यों पैदा हुआ? प्रत्येक साधक सोचे-मैं साधना कर रहा. हूं, साधु हूं, श्रावक हूं, धर्म को मैंने समझा है, मेरे मन में क्रोध का भाव क्यों आया? मेरे मन में चोरी का भाव क्यों आया? इसका क्या कारण है? उस कारण को खोज में चले जाना अतीत का प्रतिक्रमण है।
अतीत का प्रतिक्रमण होता है। एक स्थूल अर्थ में कहा जाता है-अशुभ योग से शुभ योग में चले जाना प्रतिक्रमण है। यह ठीक बात है परन्तु हम अगर गहरे में जाएं तो प्रतिक्रण का अर्थ इतना ही नहीं है। प्रतिक्रमण का अर्थ है-कारण की खोज में चले जाना और कारण के निवारण के लिए प्रयत्न करना। यह है अतीत का प्रतिक्रमण। भूतकालीन कर्म का विश्लेषण और निराकरण प्रतिक्रमण है। इसका बहुत सुन्दर वर्णन मिलता है। अगर ज्ञानावरण कर्म का कोई उदय है तो हम प्रतिक्रमण कर सकते हैं। किन कारणों से ज्ञानावरण कर्म बंधता है, यह जानें और सोचें-क्या वैसा मैंने कोई कार्य किया है? इस अनुभूति में चले जाना, उस स्थिति तक पहुंच जाना, अतीत का प्रतिक्रमण है। अगर मोहनीय कर्म का विपाक है तो जिन कारणों से मोहनीय कर्म का बंध होता है, उन कारणों की खोज में चले जाएं। कभी-कभी अतीत की खोज में डूबे व्यक्ति को अनुभव हो जाता है—मैंने ऐसा किया था इसलिए ऐसा हो रहा है।
एक व्यक्ति ने कहा-'मेरे मन में अमुक प्रकार के वासना के भाव बहुत जागते हैं।' उसने बताया- 'मैंने ध्यान बहुत दिया तो मैं उस स्थिति तक चला गया. उसका कारण उपलब्ध हो गया। मैंने जान लिया-मैं पर्व में क्या था और मैंने क्या किया था? मैं क्या धंधा करता था? मेरा धंधा था लड़कियों को फंसाना
और वेश्यावृत्ति में लगाना। मेरी जो वर्तमान वासनात्मक स्थिति है, यह उसी का परिणाम है।'
प्रतिक्रमण एक महान उपाय है अतीत में लौटने का, वर्तमान कार्य की पृष्ठभूमि तक पहुंचने का और व्रत के छेदों को भरने का। जो व्रत के छेदों को भर देता है, वह आश्रवों को रोक देता है, चरित्र के धब्बों को मिटा देता है। निदर्शन हैं रत्नाकर सूरि
रत्नाकर सूरि प्रसिद्ध जैनाचार्य हुए हैं। उनकी एक बहुत प्रसिद्ध रचना है-रत्नाकर पंचविंशति। उसमें उन्होंने आत्मनिंदा बहुत की है। कभी-कभी ऐसा लगता है-व्यक्ति को इतनी आत्मनिंदा नहीं करनी चाहिए, इतनी भावना में नही जाना चाहिए किन्तु आत्मनिंदा का क्या कारण रहा? उसे जानना महत्त्वपूर्ण है। वे
एक शहर में गए। उन्हें उस शहर में पूजा, प्रतिष्ठा और सम्मान बहुत मिला, Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org