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________________ ३६४ महावीर का पुनर्जन्म छाता है प्रतिक्रमण जीवन के ताप को रोकने का छाता है व्रत और व्रत के छिद्रों को रोकने का छाता है प्रतिक्रमण। प्रतिक्रमण का मतलब है-अईयं पडिक्कमामि-अतीत का प्रतिक्रमण करना। हमारे तीन काल हैं-अतीत, वर्तमान और भविष्य। आज मन का कोई भाव बना, अच्छा बना या बुरा, शुभ भाव आया या अशुभ, विधायक भाव आया या निषेधात्मक, उस समय यह प्रश्न उभरना चाहिए-यह भाव क्यों आया? किस कर्म का विपाक है? क्या यह मोहनीय कर्म का विपाक है? कषाय का विपाक है? नो कषाय का विपाक है? दर्शन मोह का विपाक है? चारित्र मोह का विपाक है? । वर्तमान भाव के पीछे अतीत का किया हुआ कर्म रहता है। जब उस कर्म का विपाक आता है तब हमारे भाव बनते हैं। अगर मोहनीय कर्म का क्षयोपशम कारण बना है तो भाव अच्छा आएगा। अगर मोहनीय कर्म का उदय कारण बना है, तो भाव विकृत और निषेधात्मक आएगा, घृणा, अहंकार, लोभ, भय, वासना आदि का भाव आएगा। विपाक के कारण की खोज करना प्रतिक्रमण है। हम पीछे चले जाएं, अतीत में चले जाएं, वहां जाकर यह खोजें-यह भाव क्यों जागा? क्यों आया? कारण की खोज एक मुनि ने भोजन किया। भोजन करने के कुछ समय बाद उसके मन में चोरी का भाव जाग उठा। घर की मालकिन का हार बाहर पड़ा था। मुनि ने हार उठाया और उसे अपने पास रख लिया। बड़ी विचित्र बात हो गई। एक त्यागी और वैरागी साधु ऐसा कर सकता है, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। हार लेकर मुनि अपने स्थान पर चला गया। संयोग ऐसा मिला-लगभग दो घंटे बाद वमन हुई। मुनि स्वस्थ हुआ और उस पात्र को देख आश्चर्य में पड़ गया। उसने सोचा-'अरे! यह क्या? यह हार कैसे आया।' जब कोई गहरी मूर्छा आ जाती है, तब व्यक्ति को कुछ भी पता नहीं चलता। मुनि की मूर्छा टूटी। वह अतीत में लौटा। उसने ध्यान दिया-जिस कमरे में खड़ा था, उस कमरे से यह लेकर आया हूं। वह वापस उस महिला के घर आया। उसने घर की मालकिन से कहा-'लो, यह तुम्हारा हार।' उसने पूछा-'महाराज! यह आपके पास कैसे आया?' मुनि ने कहा- पहले यह बताओ कि आज भोजन में क्या था?' महिला ने कहा-'आपको भोजन देते समय मेरे मन में विकार था। मैंने शुद्ध भोजन नहीं दिया, अशुद्ध भोजन दिया और विकृत भावों से दिया।' मुनि बोले-'यह उस भोजन का परिणाम है। भोजन करने के बाद मेरे मन में चोरी करने की बात जाग गई। मझे हार से कोई मतलब नहीं था। अकारण ही चोरी करने की बात मन में आ गई और मैं हार उठाकर चल पड़ा। अभी कुछ समय पूर्व वमन हुई, तुम्हारे घर का सारा खाया-पीया निकला, मेरा भाव बदल गया।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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