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महावीर का पुनर्जन्म
_ 'मैं तुम्हें एक शर्त पर छोड़ सकता हूं। तुम पूरी अयोध्या के चक्कर लगाओ। तुम्हारे हाथ में तेल से भरा हुआ कटोरा रहेगा। अगर उससे एक बूंद भी नीचे न गिरे तो तुम्हें मुक्त कर दिया जाएगा। यदि एक बूंद भी नीचे गिर गई तो तुम्हारे साथ चलने वाले आरक्षक तुम्हारा सिर काट लेंगे।'
मरता क्या नहीं करता? उसे इस शर्त को स्वीकार करना पड़ा। सारे नगर में एक उत्सव का-सा माहौल बना दिया गया। बाजार के चौराहों पर मनोरम नाटक हो रहे थे। गली के नुक्कड़ों पर बाजे बज रहे थे, गीत गाये जा रहे थे। चारों ओर आकर्षण के केन्द्र बनने वाले कार्यक्रम आयोजित हो रहे थे। इन्द्रियों को आकर्षित करने वाले सारे दृश्य उस समय अयोध्या में समायोजित थे।
वह व्यक्ति हाथ में तेल से लबालब भरा हुआ कटोरा लिए चल रहा था। उसके दोनों और नंगी तलवारे लिए प्रहरी चल रहे थे। उसका ध्यान कटोरे में नाच रही मौत पर केन्द्रित था। उसका ध्यान न नाटक की ओर था, न गीत-संगीत की ओर था। मात्र कटोरे पर अनिमेष ध्यान चल रहा था। मानो त्राटक सथ गया हो। वह सारे शहर में घूमकर आ गया। एक बूंद भी तेल नहीं गिरा। वह राज्यसभा में पहुंचा। तेल का कटोरा भरत के सामने रखा। उसका मन प्रसन्नता से भर उठा। उसने सुख की सांस लेते हुए इस भाषा में सोचा-अमर भए न मरेंगे अब हम। भरत से निवेदन किया-'महाराज! मैंने आपकी आज्ञा का पालन किया है। अब आप मुझे मुक्ति प्रदान करें।'
__'अब कोई दंड नहीं है। तुम जा सकते हो पर एक बात बताओ-तुम नगर में इतना घूमे, तुमने नगर में क्या-क्या देखा।'
'महाराज! मैंने न कुछ देखा, न ही कुछ सुना।'
'नगर में इतने बढ़िया नाटक हो रहे थे। कलाकार और गायक अपनी सर्वोत्तम कला को प्रस्तुत कर रहे थे। तुमने कुछ तो सुना होगा? किसका गाना पसंद आया? कौनसा नाटक पसंद आया?'
__'महाराज! मैंने कोई दृश्य नहीं देखा, एक भी शब्द नहीं सुना। मैं ऐसा योगी बन गया, तो जन्म भर योग की साधना करता रहा हो। मैंने कान, आंख और इन्द्रियों का प्रत्याहार कर लिया। पूरा योगी बन गया।'
'क्यों नहीं देखा?'
'महाराज! मुझे तो यह कटोरा और कटोरे में नाच रही मौत दिखाई दे रही थी। और कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था।'
____ 'अब तो तुम समझ गए। मैं सम्यक्दृष्टि हूं। मैं किसी को मारना नहीं चाहता। मैं राज्य कर रहा हूं, सब-कुछ चल रहा है पर पता नहीं है, वह कैसे चल रहा है। जैसे तेरे तेल के कटोरे में मौत नाच रही थी वैसे ही मेरे सामने निरन्तर यह सत्य नाचता रहता है-मैं ऐसा कार्य न करूं, जिससे कर्म का बन्धन हो जाए, मैं बंध जाऊं। हर कार्य में बंधन की चेतना निरन्तर मेरे सामने प्रस्तुत रहती है।'
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