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________________ संवेग से बढ़ती है धर्मश्रद्धा ३८७ क्या है धर्मश्रद्धा? प्रश्न होता है-धर्म की श्रद्धा क्या है? कर्म और कर्मफल की चेतना के प्रति जागरूकता का बढ़ जाना धर्म-श्रद्धा है। समस्या यह है-व्यक्ति को कर्म करते समय भान नहीं रहता कि मैं बन्धन बांध रहा हूं, स्वयं को बंधन में जकड़ रहा हूं। यह बोध कर्म में प्रवृत्त व्यक्ति नहीं करता। व्यक्ति को कर्म करना पड़ता है। वह कर्म से सर्वथा बच नहीं सकता। जिस व्यक्ति में धार्मिक श्रद्धा जाग जाती है, उसमें यह विवेक चेतना जागेगी-कहीं ऐसा न हो, इस कार्य से तीव्र बंधन बंध जाए, बंधन चिकना हो जाए। मैं जो कर्म करता हूं, उसे मुझे ही भुगतना पड़ेगा। कर्म के प्रति यह जागरूकता धर्म श्रद्धा से ही जागती है। भरत का निदर्शन चक्रवर्ती भरत छह खण्ड का अधिपति था। उसके पास विशाल सेना थी, विशाल अन्तःपुर था। उसके अन्तःपुर में रानियों की भरमार थी। भरत चक्रवर्ती की रसोई का जो वर्णन मिलता है, वह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है। दो-चार नगरों में जितना खाना पकाया जाता है, उससे भी अधिक खाना भरत की रसोई में पकता था। एक ओर इतना सब चल रहा है, दूसरी ओर चक्रवर्ती भरत अपने महल में है। भरत स्नान कर शीशमहल में, शीशे में अपने आपको देख रहा है और वह देखते-देखते स्वयं केवली बन गया। भगवान ऋषभ से किसी व्यक्ति ने पछा-'इस सभा में मोक्ष पाने वाला कौन है?' भगवान ने कहा-'भरत।' भरत का नाम सुनते ही वह व्यक्ति तिलमिला उठा। वह सभा में ही बोलने लगा- 'मैंने समझा था, दुनिया में एक स्थान ऐसा है, जहां कोई पक्षपात नहीं होता। दुनिया में सब जगह पक्षपात चलता है, भाई-भतीजावाद चलता है। किन्तु भगवान के घर में भी पक्षपात चलता है। ऐसी स्थिति में हम किसको कहें?' उसने बहुत अनर्गल प्रलाप किया। आदमी की प्रकृति बहुत विचित्र है। जब भी उसके प्रतिकूल बात आती है, वह बौखला जाता है। वह यह नहीं देखता कि सामने कौन है? 'भरत उसी सभा में था। वह सभा की मर्यादा के कारण शांत रहा। उसने अपने अधिकारियों को निर्देश दिया-जब यह व्यक्ति बाहर जाए तब इसे गिरफ्तार कर लिया जाए। अधिकारियों ने भरत की आज्ञा का पालन किया। उसे बंदी बना कर राज्यसभा में भरत के सामने प्रस्तुत किया। भरत ने कहा- 'तुमने भगवान की सभा की मर्यादा को भंग किया है। तुम्हें कम-से-कम वहां तो मौन रहना चाहिए था। कहां बोलना चाहिए और कहां नहीं बोलना चाहिए, इसका विवेक भी नहीं है। तुमने भगवान की सभा में अनर्गल प्रलाप कर जघन्य अपराध किया है।' वह व्यक्ति प्रकंपित हो उठा। उसने कहा-'महाराज! मैंने बड़ा अपराध किया है। आप मुझे माफ करें। मैं भविष्य में ऐसा अपराध नहीं करूंगा।' 'तुम्हें मुक्त नहीं किया जा सकता। तुम्हारे अपराध की सजा है-मौत' मृत्यु की सजा को सुनकर वह घबरा उठा। उसने गिड़गड़ाते हुए प्रार्थना की-'मैं अब ऐसा कभी नहीं करूंगा। आप मौत की सजा न दें।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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