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संवेग से बढ़ती है धर्मश्रद्धा
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कर्म करने का अर्थ है बंधन। कर्म और बंधन, क्रिया और बंधन-दोनों जुड़े हुए हैं। कर्म और चेतना या आत्मा का योग मिला, व्यक्ति सामाजिक बन गया। आत्मा का लोक अलग है और समाज का लोक अलग है। समाज का अर्थ है-कर्म। आत्मा है अकर्म। आत्मा का अर्थ है-कर्म मत करो, अपने आप में रहो। इन दोनों में दूरी बहुत है। एक ओर कहा गया-कर्म करो । करना शुरू कर दिया और अपने आपको बांध लिया। अपने आपको बांधे बिना कोई व्यक्ति परतंत्र नहीं बनता। व्यक्ति परतंत्र तब बनता है जब वह कर्म से बन्ध जाता है।
हमारी दूसरी चेतना है-कर्म फल की चेतना। जो कर्म बंध गया, उसका फल भुगतना होता है। व्यक्ति कर्म करता है तो उसे कर्मफल को भोगना होता है।
__ जीवन में कोई क्षण ऐसा आता है, एक नई स्थिति पैदा हो जाती है। जब पारिणामिक भाव या ज्ञान चेतना एक धक्का लगाती है तब एक नया प्रस्थान शुरू होता है। उसी का नाम है संवेग। एक ऐसा वेग या धक्का आता है, जिससे कर्म और कर्मफल की चेतना कमजोर बन जाती है। जिस क्षण में वह धक्का लगता है, उस समय पूरी तैयारी के साथ एक नया आक्रमण होता है। शत्रु की सेना उस आक्रमण से हड़बड़ा जाती है। यह हड़बड़ाहट पैदा करना कर्म और कर्मफल की चेतना को कमजोर करना है। जिस क्षण यह धक्का लगता है, उस क्षण एक नई शक्ति जागती है। उसका नाम है धर्म श्रद्धा । धर्म के प्रति श्रद्धा जागती है, धर्म के प्रति आकर्षण पैदा होता है। जब व्यक्ति कर्म और कर्मफल की चेतना में उलझा रहता है तब धर्म की श्रद्धा नहीं जागती । वह धर्म को जान लेता है किन्तु उसके प्रति श्रद्धा का भाव नहीं जागता। जन्मना धार्मिक : कर्मणा धार्मिक
ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने कहा- 'मुनिवर! मैं धर्म को जानता हूं पर उसके प्रति मेरी श्रद्धा नहीं है। मेरे मन में यह अभिलाषा ही नहीं है कि मैं धर्म करूं। दुनिया में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो धर्म का नाम सुनते हैं, अपने आपको धर्म का अनुयायी कहते हैं किन्तु उनके मन में धर्म के प्रति श्रद्धा-आकर्षण नहीं है। वे जीवन में धर्म का आचरण नहीं करते। वे जीवन भर धार्म के अनुयायी बने रहेंगे किन्तु स्वयं धार्मिक नहीं बनेंगे। एक बच्चा एक धार्मिक परिवार में जन्मा, एक जैन घर में जन्मा, वह जैन बन गया। जो वैष्णव घर में जन्मा, वह वैष्णव बन गया। जो ईसाई घर में जन्मा, वह ईसाई बन गया। जो मुसलमान के घर में जन्मा, वह मुसलमान हो गया। वह जीवन भर जैन, वैष्णव, ईसाई और मुसलमान बना रहेगा। वह अपने आपको जैन, वैष्णव, ईसाई, मुसलमान आदि कहता रहेगा किन्तु धर्म का आचरण करेगा, यह नहीं कहा जा सकता।
__इस संदर्भ में धर्म के दो भेद बन जाते हैं-जन्मना धर्म और कर्मणा धर्म। जन्मना धर्म वह है, जो जन्म के साथ प्राप्त होता है। जैसे बपौती से धन मिलता है वैसे बपौती में धर्म मिल गया। जन्म से ही धर्म का एक लेबल लग गया। धर्म से नहीं, धर्म के लेबल से धार्मिक बनने वाला जन्मना धार्मिक है। कर्मणा धार्मिक वह है, जो कर्म से धार्मिक बनता है। जब तक व्यक्ति कर्मणा
धार्मिक नहीं बनता तब तक वह सच्चा धार्मिक नहीं होता। तब व्यक्ति कर्मणा Jain Education International For Private & Personal Use Only
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