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________________ संवेग से बढ़ती है धर्मश्रद्धा स्वतन्त्रता और परतन्त्रता का संघर्ष शाश्वत है, अनादिकालीन है। व्यक्ति और समाज के स्तर पर आज भी सारे संसार में स्वतंत्रता की एक लहर चल रही है, स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष चल रहा है। दुनिया का बहुत बड़ा भाग लोकतन्त्र की छाया में हैं। जहां लोकतन्त्र नहीं है, फासिज्मवाद है, अधिनायकवाद हैं वहां भी लोकतंत्र की एक प्यास जग गई है। उसी प्यास का एक प्रतिफलन चीन और सोवियत संघ के घटनाक्रम में हम सबने देखा है, पढ़ा है। चीन जैसे साम्यवादी देश में कड़े प्रतिबंधों के उपरान्त भी स्वतन्त्रता की एक प्यास जगी है। उसने पूरे विश्व के मानस को आन्दोलित किया है। सामाजिक स्तर पर स्वतन्त्रता को पाने का यह अभिक्रम हमारे सामने है। ___ व्यक्तिगत स्तर पर भी स्वतन्त्रता और परतन्त्रता का संघर्ष निरन्तर चल रहा है। हमारा एक भाव है पारिणामिक भाव, जो जीव को बिलकुल स्वतन्त्र बनाए रखने के पक्ष में है, निरन्तर स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष कर रहा है। वह एक क्षण भी प्रमाद नहीं करता, एक क्षण भी नींद नहीं लेता । वह प्रतिक्षण और प्रतिसमय स्वतंत्रता की एक अखण्ड ज्योति जलाए बैठा है। एक है हमारा औदयिक भाव। कर्म का उदय स्वतन्त्रता को बाधित करता है। वह जीव को निरन्तर परतन्त्र बनाए रखना चाहता है। पारिणामिक भाव और औदयिक भाव-दोनों का संघर्ष निरंतर चलता रहता है। हम सोते हैं तो भी दोनों में संघर्ष चलता है और हम जागते है तो भी संघर्ष चलता है। इस संघर्ष में हमारी चेतना भी खण्डित हो गई, उसके तीन रूप बन गए-कर्म चेतना, कर्मफल चेतना और ज्ञान चेतना। कर्म करने का अर्थ एक ही चेतना के तीन आकार बन गए। कभी-कभी ऐसा होता है-घर का आदमी भी शत्रु से जा मिलता है। चेतना भी अपने शत्रु के साथ मिल गई, चेतना का एक स्तर कर्म के साथ मिल गया । उसने विजातीय तत्त्व से समझौता कर लिया। यदि कमजोर व्यक्ति मोर्चे पर आ जाता है तो वह शत्रु सेना से समझौता कर लेता है, समर्पण भी कर देता है। अगर बलवान सैनिक आगे होते है तो कभी ऐसा नहीं करते। हमारी ज्ञान चेतना ने कर्म चेतना से समझौता कर लिया। ज्ञान चेतना जो पीछे थी, अपनी शत्रु कर्म चेतना से जुड़ गई, एक समझौता हो गया-कर्म करो, काम करो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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