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दर्शन नहीं तो कुछ भी नही
मूर्च्छा का अभाव : आवरण का अभाव
जब आदमी को तेज गुस्सा आता है तब कहा जाता है— अमुक व्यक्ति लाल-पीला हो गया। गुस्से में आकृति बदल जाती है । वह गहरी लाल हो जाती है और उसमें कुछ पीलापन भी आता है। जब व्यक्ति लाल-पीला हो जाता है, गुस्से से भर जाता है तब उसे सचाई का बोध नहीं होता। उसके सामने विकार का एक ऐसा घेरा बन जाता है, जिसे छोड़कर वह सचाई को पकड़ नहीं पातः । व्यक्ति में ज्ञान है, आंख साफ है किन्तु बीच में मूर्च्छा का एक ऐसा पर्दा आता है, जो चेतना को विकृत बना देता है ।
हम कर्मशास्त्रीय दृष्टि से विचार करें। ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयोपशम का काम है-आंख के सामने कोई वस्तु आए, उसे जान लेना, देख लेना । उसे देखने-जानने में जो बाधाएं आती हैं, विकार आते हैं, वे मूर्च्छा से पैदा होते हैं। जानने का सम्बन्ध ज्ञानावरण के क्षयोपशम से है किन्तु सही जानने में, सत्य का ज्ञान करने में केवल ज्ञानावरण का क्षयोपशम ही काम नहीं देता । उसमें दो कर्मों का क्षयोपशम होना चाहिए- ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम और मोह कर्म का क्षयोपशम । मूर्च्छा का अभाव और आवरण का अभाव - दोनों होते हैं तो सम्यक ज्ञान संभव बनता है । इसलिए यह कथन संगत प्रतीत होता है- दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता । ज्ञान के बिना चरित्र नहीं होता, चरित्र के बिना मोक्ष नहीं होता और मोक्ष के बिना निर्वाण नहीं होता
नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा ण हुंति चरणगुणा । अचरित्तरस नत्थि मोक्खो, नत्थि निव्वाणं ।।
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मिथ्यत्व के दस प्रकार
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यह निर्वाण का एक समग्र क्रम है- सम्यग दर्शन, सम्यग ज्ञान और सम्यग चारित्र। सम्यग दर्शन का, सम्यक दृष्टिकोण का निर्माण करना बहुत कठिन है। जैन आगमों में मिथ्या अभिनिवेश के दस प्रकार बतलाए गए हैं१. धर्म में अधर्म संज्ञा २. अधर्म में धर्म संज्ञा ३. अमार्ग में मार्ग संज्ञा ४. मार्ग में अमार्ग संज्ञा
६. जीव में अजीव संज्ञा ७. असाधु में साधु संज्ञा ८. साधु में असाधु संज्ञा ६. अमुक्त में मुक्त संज्ञा १०. मुक्त में अमुक्त संज्ञा
५. अजीव में जीव संज्ञा मदिरा बैठी बिकाय
मिथ्या अभिनिवेश के कारण व्यक्ति धर्म को अधर्म मान लेता है, अधर्म को धर्म मान लेता है । उसमें असत्य की पकड़ हो जाती है; आग्रह हो जाता है 1 उस आग्रह के कारण वह वही देखता है, जो उसकी बुद्धि में समाया हुआ है । व्यक्ति में एक प्रकार का जो बुद्धि का विभ्रंश, बुद्धि का विपर्यय हो जाता है, उसे मिटाना बहुत आवश्यक है। जब तक बुद्धि का विपर्यय नहीं मिटेगा, हमारा ज्ञान सम्यग नहीं होगा । निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है- ज्ञान को पाने से पहले दृष्टिकोण को साफ करने का प्रयत्न अधिक होना चाहिए। हम पढ़ें- लिखें,
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