SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दर्शन नहीं तो कुछ भी नही ३७६ दिन उनका बेटा श्रीयक आपकी राजगद्दी पर आसीन होगा। यह बात आपको अविश्वसनीय लग सकती है किन्तु यथार्थ है । आप अपने विश्वासपात्र व्यक्तियों से जांच कराकर देख लें ।' ज्ञान और दर्शन : अन्तर का निदर्शन विरोधी व्यक्तियों की इस बात में सम्राट को तथ्य दिखाई दिया। उसके मन में इस बात के प्रति विश्वास जम गया । सम्राट का एक दृष्टिकोण बन गया, धारणा बन गई। अब शडकाल जो भी कार्य करता, सम्राट को लगता - यह राज्य उखाड़ने का प्रयत्न कर रहा है, मेरा राज्य छीनने का प्रयास कर रहा है। उसके हर कार्य के प्रति राजा संदिग्ध हो उठा। राजा ने जांच करने का निर्णय लिया और उस जांच के सारे निष्कर्ष उस धारणा के आधार पर निकाले गए । शस्त्रास्त्रों के निर्माण आदि की अवगति पाने के बाद राजा ने निर्णय लिया -- 'उचित समय पर शडकाल के पूरे वंश का उच्छेद करना है ।' महामात्य शडकाल को राजा का यह निर्णय ज्ञात हो गया। उसने सोचा - सम्राट ने कुपित होकर अन्याय करने का निश्चय किया है, मेरे वंश के नाश का अभिक्रम किया है। मुझे अपना बलिदान देकर राजा को अन्याय से और वंश को विनाश से बचाना है। उसने अपने पुत्र श्रीयक को बुलाकर कहा - ' - 'तुम मेरे पुत्र हो, सम्राट के अंगरक्षक हो । यह लो तलवार । इसके वार से राजसभा में मेरा गला काट देना ।' सम्राट को अन्याय का भान हो, कल्पक वंश की ज्योति अखण्ड बनी रहे, इसीलिए शडकाल ने अपने पुत्र के हाथों अपना गला कटवाया । अभिनिवेश : दो प्रकार यह ज्ञान और दर्शन के अन्तर का निदर्शन है। व्यक्ति के दृष्टिकोण का जैसा निर्माण हो जाता है, वह उसके आधार पर ही सारी जानकारियां एकत्र करता है। उसका सारा ज्ञान, चिन्तन और निर्णय उसके दृष्टिकोण और धारणा से प्रभावित होता है । चरक में रोग का एक प्रकार बतलाया गया है-अतत्त्वाभिनिवेश । चरक के सिवाय किसी भी आयुर्वेदिक ग्रन्थ में इसकी चर्चा प्राप्त नहीं है । चरक में अतत्त्वाभिनिवेश को बौद्धिक बीमारी माना गया है विषमाभिनिवेशो यो, नित्यानित्ये हिताऽहिते । ज्ञेयः स बुद्धिविभ्रंशः, समं बुद्धिर्हि पश्यति ।। नित्य और अनित्य, हित और अहित में जो विषम अभिनिवेश है, वह बुद्धि का विभ्रंश है। वस्तुतः बुद्धि सम्यक देखती है। अध्यात्म में कहा गया—सम्यक् दर्शन और मिथ्या दर्शन । चरक में कहा गया- विषमाऽभिनिवेश और समाऽभिनिवेश । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy