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महावीर का पुनर्जन्म दिया। मनुष्य की रुचि वहीं जाती है जहां लाभ अधिक दिखाई देता है। शरीर बलवान बनाने की अपेक्षा मन को बलवान बनाना अधिक लाभप्रद है। मन को बलवान की अपेक्षा भावनाओं को बलवान बनाना अधिक लाभकारी है. अधिक आवश्यक है। यदि अधिक आवश्यकता और अधिक लाभ की अनुभूति हो जाए तो व्यक्ति के लिए धर्म करना अनिवार्य बन जाए। इस स्थिति में व्यक्ति का मानस बोलता है-मैं रोटी खाऊं या न खाऊं किन्तु माला जपना नहीं छोडूंगा, सामायिक करना नहीं छोडूंगा, प्रवचन सुनना नहीं छोडूंगा। यह अनिवार्यता की अनुभूति रुचि में बदलाव का महत्त्वपूर्ण कारण बनती है। आवश्यकता की अनुभूति हो
बहुत कठिन है रुचि को मोड़ना। क्रिकेट की कोमेन्ट्री सुनने में जो आकर्षण है, रुचि है, धर्म की बात सुनने में वैसा आकर्षण कहां है? आज के युग में टी०वी०, सिनेमा देखने वाले, क्रिकेट की कोमेन्ट्री सुनने वाले उसे छोड़कर धर्म स्थान में आते हैं, धर्म-चर्चा में रस लेते हैं तो यह एक आश्चर्य की बात हो सकती है। आज स्थिति यह है कि जब रेडियो पर कोमेन्ट्री आती है, व्यक्ति खाना-पीना भूल जाता है। मां रोटी खाने के लिए कहती-कहती थक जाती है। जो कोमेन्ट्री में रस है, वह खाने में नहीं मिलता। सम्भव है, उस समय यदि चोर आ जाए, सामने से कोई चीज उठाकर ले जाए तो उस पर भी ध्यान नहीं जाए। इस स्थिति में यदि हम धर्म की आवश्यकता का अनुभव करा सकें, धर्म कितना आवश्यक है, इस तथ्य को समझा सकें तो व्यक्ति की रुचि बदल जाएगी, आकर्षण बदल जाएगा, उसके जीवन में एक नया मोड आ जाएगा।
वर्तमान युग को एक मोड़ देने की आवश्यकता है। अगर इस भौतिकवादी और सुविधावादी युग में, विज्ञापनों और गलत आकर्षणों के युग में मोड़ न ला सकें तो आने वाली पीढ़ी दायित्वहीन, बौद्धिक दृष्टि से कमजोर और विद्या की दृष्टि से शून्य होगी। दायित्व-बोध और गंभीरता जैसे तत्त्व विरल बन जाएंगे। इसलिए उपदेश-रुचि पर अधिक से अधिक ध्यान केन्द्रित होना चाहिए। हम उपदेश-रुचि के प्रयोग द्वारा जनता में नव तत्त्वों के प्रति, सत्य और धर्म के प्रति एक अनिवार्यता की अनुभूति जगाएं, यह अपेक्षित है। यह अनुभूति कराना हमारा सामाजिक दायित्व है, राष्ट्रीय दायित्व है और आत्मिक दायित्व है। उपदेश-रुचि का होना इन तीनों दृष्टियों से बहुत महत्त्वपूर्ण है। ऐसा करने वाला व्यक्ति युग को मोड़ने वाला है और वह युग प्रवर्तन में अपनी समुचित भूमिका निभाता है। युग के प्रवाह में न चलकर उसके प्रतिकूल चलने वाला व्यक्ति
आकर्षण की दिशा को बदल सकता है। अभिभावकों का, माता-पिता का, यह दायित्व है कि वे बच्चों की रुचि के साथ न चलें किन्तु उनकी रुचि को मोड़ने में अपना योग दें। यदि ऐसा होता है तो महावीर की उपदेश-रुचि वाली बात हमारे लिए बहुत सार्थक और प्रासंगिक बन पाएगी।
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