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बिम्ब एक प्रतिबिम्ब अनेक
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उसमें रुचि नहीं थी । आगम स्वाध्याय चलता रहा, आगम के प्रति रुचि जगाने का प्रयत्न चलता रहा । अनेक व्यक्तियों ने अनुभव किया—आगम का स्वाध्याय आवश्यक है। उससे बहुत लाभ होने की संभावना है। आगम के प्रति रुचि जाग गई ।
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रुचि बदलने का सूत्र है-एक आवश्यक कार्य के सामने उससे अधिक आवश्यक कार्य का प्रस्तुत होना । व्यक्ति को यह अनुभूति हो, अमुक कार्य मेरे लिए ज्यादा आवश्यक है। वह उस कार्य को अपनी रुचि का विषय बना लेता है यह अनुभूति हो, उसके कार्य में अधिक लाभ है तो व्यक्ति की रुचि बदल जाएगी।
एक प्रसिद्ध कथा है- देवी ने प्रसन्न होकर एक ब्राह्मण को दक्षिणावर्त शंख प्रदान किया। दक्षिणावर्त शंख से जो मांगा जाता है, वह मिल जाता है। एक बार ब्राह्मण किसी यात्रा पर निकला। दक्षिणावर्त शंख साथ में था । मार्ग में एक ब्राह्मण के घर ठहरा, रात्रि विश्राम किया । वह सुबह चार बजे उठा । दक्षिणावर्त शंख की पूजा कर ब्राह्मण ने कहा- 'दो दस रुपये ।' दक्षिणावर्त शंख ने दस रुपये देते हुए कहा - 'लो दस रुपये ।' यह देख गृहस्वामी ब्राह्मण का मन ललचा गया। थोड़ी देर बाद अतिथि ब्राह्मण किसी कार्य के लिए इधर-उधर गया। पीछे से उस गृहस्वामी ब्राह्मण ने दक्षिणावर्त शंख उठा लिया, उसके स्थान पर दूसरा शंख रख दिया । ब्राह्मण ने अपना थैला लेकर प्रस्थान किया। दूसरा दिन उगा । प्रातः शंख की पूजा कर रुपये मांगे। उसे कुछ नहीं मिला । ब्राह्मण ने सोचा- धोखा हो गया । उस ब्राह्मण ने शंख बदल दिया। अब मैं क्या करूं?
ब्राह्मण पुनः देवी के पास पहुंचा। उसने देवी से प्रार्थना की- 'मा! मुझे बचाओ।' देवी ने कहा - 'कोई बात नहीं। मैं तुम्हें दूसरा शंख देती हूं।' उसकी सारी विधि भी ब्राह्मण को समझा दी । ब्राह्मण शंख लेकर चला। वापस उसी ब्राह्मण के घर अतिथि बना। दूसरे दिन सुबह उठा । शंख की पूजा कर बोला- 'आज मुझे सौ रुपये की जरूरत है ।' शंख ने कहा - 'सौ क्यों, दो सौ रुपये लो ।' ब्राह्मण ने कहा- 'अभी नहीं बाद मैं ले लूंगा ।' उस गृहस्वामी ने सोचा- यह गजब का शंख है। दक्षिणावर्त शंख तो उतना ही देता है, जितना मांगते हैं। यह उससे दुगुना देता है। अतिथि ब्राह्मण इधर-उधर गया। घरवाले ब्राह्मण ने दक्षिणावर्त शंख उसकी झोली में डाल दिया और दूसरे शंख को उठा लिया । ब्राह्मण का काम बन गया । वह वहां से अपना थैला उठा कर चल पड़ा। दूसरे दिन ब्राह्मण ने उस नए शंख की पूजा की और सौ रुपये मांगे। उस शंख ने कहा- 'लो दो सौ रुपये ।' ब्राह्मण ने कहा- 'लाओ दो सौ ।' शंख ने कहा- 'मैं डफोर-शंख हूं, केवल बोलता हूं, देता कुछ नहीं । तुम बोलते चले जाओ, मैं भी बोलता चला जाऊंगा । लेना-देना कुछ नहीं ।
लक्षं लक्षं पुनर्लक्षं, कोटिरयुतमेव च । अहं डफोरशंखोस्मि, वदामि न ददाम्यहं ।।
हम कथा का निष्कर्ष निकालें । ब्राह्मण ने दक्षिणावर्त शंख को छोड़कर डफोरशंख क्यों लिया? इसका कारण था— उसे डफोरशंख में अधिक लाभ दिखाई
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