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________________ बिम्ब एक प्रतिबिम्ब अनेक मैंने पूछा- 'तुम माला जपते हो?” 'महाराज ! जब भी हम आपके पास आते हैं, आप कहते हैं-माला गिनो। कल मैं एक साध्वी के पास गया था, उन्होंने कहा— माला जपा करो । आज एक मुनिजी ने भी यही बात कही। आप भी यही बात कह रहे हैं। मै । कितनी मालाएं गिनूं? क्यों जप करूं? मुझे उससे क्या मिलना है?' 'तुम्हारा शरीर कैसा है?" 'एकदम स्वस्थ है ।' 'शरीर के सिवाय तुम्हारे पास और कुछ भी है? क्या मन नहीं है?" 'हां! मन तो है ।' ३७३ 'और भावना ?" 'उसके सहारे ही सारा जीवन जीता हूं।' 'शरीर, मन और भावना - इन तीनों में शक्तिशाली कौन है? तुम्हारा शरीर स्वस्थ और मजबूत लग रहा है । यह शरीर शक्तिशाली है या मन?" 'मन शक्तिशाली ज्यादा है। अगर मन थोड़ा कमजोर हो जाए, दुर्बल हो जाए तो घुटने टिक जाते हैं। मन की शक्ति के सामने शरीर की शक्ति कुछ भी नहीं है ।' ' तुम मानते हो – शरीर से भी मन ज्यादा शक्तिशाली है। अब यह बताओ - तुम शरीर को अच्छा बनाने के लिए कितना समय लगाते हो?” 'शरीर के लिए तो बहुत समय लगता है ।' 'क्या मन के लिए जरूरी नहीं है?" 'करना तो चाहिए ।' 'क्या तुम जानते हो, मन कैसे मजबूत रह सकता है?" 'मैं नहीं जानता, उसका साधन क्या है?" 'उसका साधन है धर्म। वह मन और भाव — दोनों को पवित्र तथा शक्तिशाली बनाता है ।' यह एक बिन्दु है, जिस पर पहुंच कर व्यक्ति धर्म की आवश्यकता की अनुभूति करता है। व्यक्ति शरीर के प्रति निरन्तर सजग रहता है किन्तु मन के प्रति नहीं। इसका कारण है-उसे अभी तक आवश्यकता की अनुभूति नहीं हुई । एक मालिक ने अपने नौकर से कहा- 'भाई ! इतने दिन मेरी नौकरी अच्छी जगह लगी हुई थी। मुझे खूब पैसा मिलता था । हमारे यहां बहुत बढ़िया भोजन बनता था । किन्तु आज मेरी नौकरी छूट गई है, इसलिए रूखा-सूखा खाना बनाना, बहुत ज्यादा घी का प्रयोग मत करना। उसने रसोई बनाई । मालिक को रूखे-सूखे - बिना चुपड़े फुलके परोस दिए । मालिक ने खाना खा लिया । मालिक को खाना खिलाकर वह स्वयं खाना खाने बैठा । उसने अपने लिए फुलके चुपड़े। वह घी से बने मसालेदार साग के साथ उन्हें खाने लगा | मालिक बोला- यह क्या कर रहे हो? मैंने तुम्हें घी के लिए मना किया था। नौकर ने कहा—मालिक! मेरी तो नौकरी लगी हुई है। आपकी नौकरी छूटी है। आप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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