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________________ ३७२ महावीर का पुनर्जन्म निकला हुआ है। अमुक व्यक्ति ने इतना धन कमा लिया, अमुक व्यक्ति ने इतना धन गंवा दिया। चर्चा का एक मुख्य केन्द्र बिन्दु बना हुआ है, ऋद्धि या वैभव। चर्चा का एक विषय बनता है भोजन। एक व्यक्ति कहता है-आज मैं अमुक बारात में गया था। वहां इतनी मिठाइयां बनी थीं, इतना बढ़िया भोजन बना था। दूसरा व्यक्ति कहता है-मैं जिस बारात में गया था वहां बहुत कम मिठाइयां परोसी गई। भोजन भी अच्छा नहीं था और आतिथ्य भी अच्छा नहीं था। भोजन की चर्चा में सारा समय व्यर्थ चला जाता है। चर्चा का एक विषय बनता है-सुख, प्रिय संवेदन। व्यक्ति अपने सुख में बीते हुए क्षणों को याद करता रहता है। वह उनकी स्मृति और चर्चा करता रहता है। व्यक्ति का आकर्षण इन तीन बिन्दुओं पर केन्द्रित है। ऐसी स्थिति में धर्म की बात कैसे अच्छी लगे? धर्म में न खाने की बात है, न पीने की बात है और न कोई आकर्षण पैदा करने वाला तत्त्व है। शायद इसीलिए धर्म के लोगों ने प्रभावना या प्रसाद बांटना शुरू किया होगा? वैष्णव धर्म में कहा जाता है प्रसाद और जैन-धर्म में लोग कहते हैं प्रभावना। जो लोग धर्म की बात सुनने नहीं आते हैं, प्रभावना या प्रसाद का आकर्षण उन्हें खींच लाता है। प्रसाद या प्रभावना में लड्डू बांटे जाते हैं। उनके आकर्षण से बच्चे इकट्ठे हो जाते हैं, बड़े लोग भी आने लग जाते हैं। किन्तु आकर्षण से मूल रुचि को नहीं जगाया जा सकता। __ आज तत्त्व के प्रति आकर्षण सघन नहीं है। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष-ये नवतत्त्व कहलाते हैं। प्रश्न है--इनके प्रति रुचि कैसे जागे? जब तक आवश्यकता और लाभ की अनुभूति नहीं होती तब तक इनके प्रति रुचि पैदा नहीं हो सकती। वस्तुतः धर्म के प्रति नैसर्गिक रुचि बहुत कम होती है। वह जगाने पर ही जागती है। आचार्य का, धर्मगुरु का काम होता है रुचि को जगाना। रुचि के साथ चलना आसान है किन्तु नई रुचि पैदा करना बहुत कठिन काम है। अगर आवश्यकता की अनुभूति करा दी जाए, उसके परिणाम की अनुभूति करा दी जाए तो नई रुचि की जागृति संभव बन जाती है। धर्म की आवश्यकता : एक बिन्दु मैंने एक युवक से पूछा-'भाई! कभी अपने बारे में सोचते हो? धर्म में समय लगाते हो? धार्मिक अनुष्ठान करते हो?' 'बिल्कुल नहीं करता।' 'क्यों नहीं करते?' 'उसके प्रति मेरा कोई आकर्षण ही नहीं है।' एक युवक के मन में धर्म के प्रति आकर्षण कम होता है। उसका आकर्षण पढ़ने में होता है, व्यापार करने और सुख-सुविधा जुटाने में होता है। धन और मनोरंजन में उसका आकर्षण है। उनकी इन सब बातों में रुचि है। जहा रुचि होती है, वहां प्रीति होती है, आकर्षण होता है। धर्म के प्रति रुचि नहीं है इसलिए उसके प्रति प्रीति भी नहीं होती, आकर्षण भी नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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