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________________ ६० बिम्ब एक : प्रतिबिम्ब अनेक सर्दी का मौसम था। दो मित्र घूमने निकले। किसी बगीचे में पहुंचे। एक धूप में जाकर बैठ गया और दूसरा पेड़ की छाया में। किसी व्यक्ति ने पूछा-'तुम दोनों साथ आए। तुम धूप में बैठे हो और वह पेड़ के नीचे बैठा है, ऐसा क्यों?' उसने कहा- 'मुझे पेड़ के नीचे बैठने में बड़ा सुख मिलता है।' दूसरे से पूछा-'तुम पेड़ के नीचे क्यों नहीं बैठे?' उसने कहा- 'मुझे धूप में बड़ा सुख मिलता है।' प्रतिबिम्ब दो हो गए और बिम्ब एक हो गया। मूल बात है-सुख मिलना। यह जरूरी नहीं है कि जिस बात से एक को सुख मिलता है, उसी से दूसरे को भी सुख मिले। किसी को शीतल छाया सुख देती है और किसी को धूप-सेवन। किसी को ठंडे पानी से नहाना अच्छा लगता है और किसी को गर्म पानी से स्नान करना। कुछ व्यक्ति सर्दी के दिनों में भी ठण्डे पानी से स्नान करते हैं। अधिकांश लोग सर्दी के मौसम में गरम पानी से स्नान करना पसन्द करते हैं। किसी व्यक्ति को मिठाई खाने में सुख मिलता है और किसी को नमकीन खाना रुचिकर लगता है। कोई व्यक्ति टण्डा पेय पीना पसंद करता है और कोई व्यक्ति गर्म पेय पीना। इसलिए आधुनिक होटलों में ठण्डा और गर्म-दोनों प्रकार के पेय पदार्थों की व्यवस्था रहती है। हम कितनी ही घटनाएं लें, सबका निष्कर्ष एक ही है। आदमी वही काम करता है, जिसके प्रति उसकी रुचि होती है, रुझान होता है, आकर्षण होता है। उसे जिस कार्य में सुख मिलता है वह उस कार्य में व्याप्त होता है। रुचि-निर्माण के घटक तत्त्व आवश्यकता और लाभ-ये दो तत्त्व व्यक्ति की रुचि को सहारा देते हैं। व्यक्ति में पहले यह अनुभूति जागती है कि यह कार्य करना मेरे लिए जरूरी है। मुझे यह कार्य करना चाहिए, अवश्य करना चाहिए। वह यह सोचता है इस कार्य में मुझे लाभ होगा। आवश्यकता की अनुभूति और लाभ की संभावना-ये दो तत्त्व रुचि का निर्माण करते हैं। दो आदमी लड़ रहे हैं। तीसरा आदमी आया, वह वहीं खड़ा हो गया और लड़ाई देखने लगा। वे दोनों व्यक्ति बहुत देर तक लड़ते रहे, वह खड़ा खड़ा उन्हें देखता रहा। भीड़ जमा होती चली गई। जितनी देर तक लड़ाई चली, लोग उसे देखते रहे, उसमें रस लेते रहे। प्रश्न हो सकता है-उसमें कौन सी आवश्यकता की पूर्ति हो रही थी और कौन सा लाभ हो रहा था? उसमें आवश्यकता और लाभ-ये दोनों नहीं हैं। मानना चाहिए, रस भी रुचि के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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