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उपयोगितावाद
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'मैंने सुना है, कौशल देश का राजा बड़ा दयालु है। वहां मुझे अवश्य कुछ सहायता मिलेगी। इस आशा से मैं कौशल जा रहा हूं।'
कौशल नरेश ने रास्ता ही नहीं बतलाया, स्वयं उसके साथ चल पड़ा। कौशल नरेश और परदेशी–दोनों काशी नरेश की सभा में पहुंचे। सभा में पहुंचकर कौशल नरेश बोला—'महाराज! आप जिसकी खोज में है, वह मैं (कौशल नरेश) आपके सामने प्रस्तुत हूं। आपने घोषणा की है-जो व्यक्ति कौशल नरेश को जीवित या मृत अवस्था में मेरे सामने प्रस्तुत करेगा, उसे सौ स्वर्ण मुद्राएं दी जाएगी। आप इस व्यापारी को सौ स्वर्ण मुद्राएं दें और मेरा सिर काट डालें। इस भाई को रुपयों की सख्त जरूरत है। यह बड़ी आशा लेकर आया है। आप उसकी आशा को पूर्ण करें।'
काशी नरेश यह सुनकर अवाक रह गया। उसे सहसा विश्वास ही नहीं हुआ। क्या कभी ऐसा हो सकता है? क्या यह सम्भव है? किन्तु प्रत्यक्ष को नकारने का साहस उसमें नहीं था। इस घटना से उसका मन रूपान्तरित हो गया। काशी नरेश सिंहासन से नीचे उतरा, उसने कौशल नरेश को प्रणाम किया और उन्हें कौशल के सिंहासन पर बिठा दिया।
काशी नरेश ने कहा- 'यह लें अपना राज्य। मैं इसे सदा के लिए छोड़ रहा हूं।'
आदमी बदलता है। एक कोण ऐसा आता है, व्यक्ति बदल जाता है। कौशल नरेश का एक ऐसा व्यवहार सामने आया, काशी नरेश का हृदय बदल गया। जीवन में भी बदलने का कोई ऐसा कोण आता है, व्यक्ति में बदलाव घटित होने लग जाता है। जब बदलाव शुरू होता है, तब पुराने बंधन टूटने लगते हैं। जब बंधन टूटता है, दृष्टिकोण बदल जाता है, आकांक्षा की स्थिति बदल जाती है, विस्मृति भी टूटने लगती है। आदमी को बार-बार अपनी स्मति हो आती है। 'मैं कौन हूं' यह प्रश्न उसके मानस को कुरेदने लगता है, आवेश कम हो जाता है, चंचलता भी मंद होती जाती है। बन्धन का मार्ग पीछे रह जाता है. मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है
जीव बंधन से चला और मुक्ति के निकट पहुंच गया। दो छोर हैं—एक ओर बंधा हुआ जीव तो दूसरी ओर अपना शुद्ध अस्तित्व-इन दोनों के बीच है उपयोगितावादी दृष्टिकोण। जिस व्यक्ति ने इस रहस्य को पकड़ा है, उसने सचमुच अन्धकार से प्रकाश की ओर, बंधन से मुक्ति की ओर, मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की ओर प्रस्थान किया है।
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