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________________ महावीर का पुनर्जन्म ३६६ नहीं है, आकांक्षा नहीं है, उसकी चाह शुरू हो जाती है । जीव में पुद्गल की कोई चाह या आकांक्षा नहीं होती किन्तु मिथ्या दृष्टिकोण उसमें इस चाह जगा देता है । चाह का कहीं अन्त ही नहीं होता । अनन्त चाह और आकांक्षा पैदा हो जाती है। उसका परिणाम है प्रमाद । व्यक्ति अपने स्वरूप को भुला देता है । उसे अपनी विस्मृति हो जाती है । चेतन को बहुत बार यह याद ही नहीं रहता कि मैं चेतन हूं। उसे अपने चैतन्य की विस्मृति हो जाती है। मेरे सामने एक प्रश्न है-हमारा चौबीस घण्टों में आत्मा के साथ कितना संपर्क जुड़ता है और पदार्थ के साथ कितना सम्पर्क जुड़ता है? यदि हम इसका विश्लेषण करें तो हमें हमारी वास्तविक स्थिति का बोध हो सकता है। एक व्यक्ति सुबह उठता है । आजकल व्यक्ति बिस्तर पर ही बेड टी लेना पसन्द करता है। पहला सम्पर्क चाय से जुड़ता है । वह उठने के बाद कुल्ला करता है। उसका दूसरा संबंध टूथपेस्ट के साथ जुड़ जाता है । उसके बाद वह स्नान करता है, उसका सम्पर्क साबुन और पानी से होता है । उसके बाद उसका सम्बन्ध कपड़ों से जुड़ता है। स्नान के बाद वह दर्पण के सामने खड़ा होता है, तेल लगाता है, इत्र लगाता है, कंघी करता है, कपड़े पहनकर तैयार होता है । और भी न जाने कितने प्रकार के पुद्गलों से सम्पर्क जोड़ लेता है। इतना होने के बाद वह नाश्ता करता है। नाश्ते में उसका सम्बन्ध चाय, दूध, बिस्कुट, पापड़ आदि न जाने कितने पुद्गल द्रव्यों से हो जाता है । आजकल शहरी लोग हेवी नाश्ता करते हैं । परांठें, सब्जियां, ब्रेड, टोस्ट आदि कितने ही पदार्थ एक दिन के नाश्ते में चाहिए । नाश्ते के बाद वह बाहर आता है, दूसरों से मिलता है, बातचीत शुरू होती है, हंसी-मजाक व मनोरंजन शुरू होता है। टी. वी., रेडियों और आफिस के साथ सम्पर्क जुड़ता है। ग्राहकों के साथ, अतिथि और अधिकारियों के साथ सम्पर्क होता है । पदार्थ जगत के साथ सम्पर्क की एक श्रृंखला है । एक व्यक्ति दिन में न जाने कितने व्यक्तियों और पदार्थों से जुड़ता है। व्यक्ति एक दिन में हजारों हजारों व्यक्तियों से सम्पर्क साध लेता है । पदार्थ जगत से सम्पर्क की श्रृंखला का कोई अन्त नहीं है । सम्पर्क जोड़ने वाला जीव है और जिसके साथ सम्पर्क कर रहा है, वह अजीव है। यह दृष्टिकोण का विपर्यास है। 'मैं जीव हूं' इस सत्य की स्मृति दिन में दो बार भी नहीं होती । सारा सम्पर्क अजीव के साथ जुड़ा हुआ है । वह अजीव को देखता है, अजीव से सम्पर्क करता है, अजीव के साथ रहता है। उसके चारों और अजीव का एक जाल-सा बिछा हुआ है और वह उसमें फंसता चला जाता है। ऐसा लगता है-उसका व्यवहार अजीवमय बन गया है । इस स्थिति में चैतन्य की स्मृति कैसे हो सकती है? बंधन : पांच हेतु प्रत्येक व्यक्ति के सामने प्रश्न है- दृष्टिकोण का यह विपर्यास कैसे मिटे? यह बन्धन की पहली आधारशिला है । उसका दूसरा कारण है आकांक्षा । विपरीत दृष्टि वाला व्यक्ति अविरति में डूबता चला जाता है। उसकी चाह की कहीं कोई सीमा नहीं होती। उसे जितना भी मिलता है, वह अपर्याप्त ही रहता है । तीसरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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