________________
५६
उपयोगितावाद
व्यक्ति है और उसे कुछ होना है। 'है' हमारा ज्ञेयवाद है, पदार्थवाद है। 'होना' परिवर्तनवाद है, उपयोगितावाद है। जंगल में एक पेड़ है। उस पर फूल लगे हुए हैं, फल लगे हुए हैं। उनका मात्र अस्तित्व है। एक आदमी गया। उसने फूल को सूंघा, फल को चखा। उसकी उपयोगिता प्रस्तुत हो गई। कहा जाता है-अरण्यकुसुम-जंगल का फूल किस काम का? काम न आए तो वह कोरा 'है'। यदि वह काम में आ गया तो उसका ‘होना' हो गया, उपयोगिता हो गई।
प्रश्न होता है-हम श्रेय को क्यों जाने? उसे जानने का प्रयोजन क्या है? हमारा प्रयोजन है-बंधन, समस्या और दुःख से मुक्ति। इसके लिए पहले जानना होता है। जानने के बाद बदलाव घटित होता है। जाने बिना कोई व्यक्ति बदलता नहीं है। बंधन-मुक्ति के लिए बंधन को जानना जरूरी है। . मिलावटी व्यक्तित्व ।
हमारे सामने दो तत्त्व स्पष्ट है-चेतन और अचेतन। स्वरूप की दृष्टि से चेतन है अचेतन है। यह एक सार्वभौम सचाई है-चेतन कभी अचेतन नहीं बनता और अचेतन कभी चेतन नहीं बनता। दोनों अपने-अपने रूप में बने रहते हैं। किन्तु हमारी दुनिया का एक नियम है-मिलना, मिश्रण करना, मिलावट करना। हमारा जीव स्वयं मिला हुआ है। मनुष्य का व्यक्तित्व भी मिला हुआ है। अगर मनुष्य का व्यक्तित्व शुद्ध होता तो वह कभी मिलावट कर ही नहीं सकता। किन्तु उसका व्यक्तित्व मिलावटी है इसलिए वह मिलावट कैसे नहीं करेगा? जब तक मिलावटी व्यक्तित्व विद्यमान रहेगा, मिलावट चलती रहेगी।
__मिलावट प्रकृति का स्वभाव जैसा बना हुआ है। सोने और मिट्टी में क्या संबंध है? किन्तु किसी भी खान से कभी भी शुद्ध सोना नहीं निकलता। वह हमेशा मिट्टी के साथ निकला है। हीरे-पन्ने भी शुद्ध नहीं निकलते। वे भी मिलावट के साथ निकलते हैं। खान से कोई भी धातु शुद्ध नहीं निकलती, उसे शुद्ध करना होता है। जमीन से खनिज तेल निकलता है। उसमें भी मिश्रण है। उसे भी शुद्ध किया जाता है।
मिलावट प्रकृति का नियम है। जो प्रकृति का नियम है, वह चेतना का नियम बना हुआ है। चेतना के साथ कुछ मिला हुआ है। उस मिलावट का नाम है बंधन। चेतन के साथ दूसरा मिल गया, अचेतन मिल गया। इसका अर्थ है बंधन। इसका अर्थ है समस्या और दुःख। बहुत लोग सोचते हैं-जीवन में समस्या बहुत है, दुःख बहुत है। जब समस्या का कारण मौजूद है तो समस्या क्यों नहीं होगी? समस्या, दुःख और बंधन का कारण यह मिलावट है, चेतन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org