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________________ अस्तित्वाद ३६३ कर सकता और अकेला जीव भी नाना रूपों की सृष्टि नहीं कर सकता। सृष्टि के नानात्व में दो घटक तत्त्व हैं-जीव की शक्ति और पुद्गल की शक्ति। दोनों का योग मिला और नाना रूप बन गए। मनुष्य का शरीर, हाथी का शरीर, चींटी का शरीर और वनस्पति का जगत-सब कुछ इन दोनों शक्तियों के योग से बना जैन दर्शन का अस्तित्ववाद प्रश्न होता है रूपान्तरण और परिवर्तन का कारण कौन है? हमारे अस्तित्व में दो शक्तियां काम करती हैं-प्राकृतिक शक्ति और प्रजनन शक्ति। नैसर्गिक शक्ति निरन्तर क्रियाशील रहती है, घूमती रहती है, अस्तित्व अपना काम करता रहता है। यह प्राकृतिक शक्ति है। इसके द्वारा किसी नए रूप का निर्माण नहीं होता किन्तु भीतर में परिवर्तन होता रहता है। केवल आंतरिक परिवर्तन होता है, बाहरी परिवर्तन से उसका कोई लेना-देना नहीं होता। दूसरी शक्ति है प्रजनन की शक्ति। यह एक से दो का निर्माण कर देती है। एक कोशिका टूटती है तो यह दूसरी कोशिका का निर्माण कर देती है। प्रत्येक कोशिका में प्रजनन की शक्ति है, नए रूप के निर्माण की शक्ति है। इस प्रजनन की शक्ति का नाम है-व्यंजन पर्याय, व्यंजन की शक्ति, अभिव्यक्ति की शक्ति। अभिव्यक्ति का जगत बहुत बड़ा है। हम उस जगत की बात कर रहे हैं, जिसमें हम जी रहे हैं। हम जिसमें हैं, केवल हैं और इसे ही समझना है। इससे न आगे जाना है और न पीछे जाना है। इतनी बात समझ में आ जाए तो जैन दर्शन का अस्तित्ववाद समझ में आ जाए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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