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मोक्षमार्ग
एकांगी और सापेक्ष दृष्टिकोण का परिणाम
ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग-तीनों प्रकार के दृष्टिकोण मिलते हैं। महावीर ने किसी एक दृष्टिकोण को मान्य नहीं किया। उन्होंने कहा–तीनों बातें सही हैं पर अधूरी हैं। पूरा सत्य तब बनेगा जब ये तीनों दृष्टिकोण एक साथ मिल जाएंगे। महावीर की भाषा में क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया-दोनों अपर्याप्त हैं, व्यर्थ हैं। उदाहरण की भाषा में बताया गया-दो आदमी थे। एक अंधा था और एक पंगु। दोनों आदमी जंगल में बैठे थे। जंगल में आग लग गई। पंगु बोला-'अरे भैया! आग लग गई है, अब क्या करें?' अंधे ने कहा-'तू तो चल नहीं सकता। यहीं बैठा रह। मैं दौड़ता हूं।' अंधे को कुछ दिखाई नहीं पड़ा। वह आग की ओर दौड़ पड़ा और आग में गिरकर जल गया। जिसे दिख रहा था, चल नहीं सकता था। आग बढती-बढती उसके पास आ गई। वह भी जल गया। देखने वाला भी जल गया और चलने वाला भी जल गया।
यह एकांगी दृष्टिकोण का परिणाम है। जहां कोरी आंख और कोरा पैर होता है वहां काम ठीक नहीं बनता। काम सही तब बनता है जब दोनों का योग मिल जाए, आंख और पैर–दोनों एक साथ मिल जाएं।
इस उदाहरण को दूसरे संदर्भ में देखें। अंधा और पंगु-दोनों जंगल में बैठे हैं। संयोगवश जंगल में आग लग गई। पंग ने कहा- भैया। आग ला है, हम बचे हैं और सारे साथी चले गए।' अंधा बोला-'मुझे दिखाई नहीं देता।' पंगु बोला-'मुझसे चला नहीं जाता।' तत्काल दोनों ने समझौता किया। अंधे ने पंगु को पीठ पर बिठा लिया। पंगु का दिशा-निर्देश और अंधे की गति। पंगु मार्ग बताता चला गया और अंधा दौड़ता चला गया। वे दोनों जंगल को पार कर गए, आग से बच गए।
एक चक्के से कभी रथ नहीं चलता। रथ को चलाने के लिए दो पहिए चाहिए। दोनों मिलते हैं तब बात पूरी बनती है। कोरा ज्ञान और कोरा आचार बंधन से मुक्त नहीं कर सकता। बंधन-मुक्ति के लिए, आत्मा से परमात्मा बनने के लिए ज्ञान और आचार-दोनों का योग जरूरी है। मार्ग एक : साधन चार
मुक्ति का मार्ग एक है और उस मार्ग-प्राप्ति के साधन चार हैं-ज्ञान, श्रद्धा, निग्रह और शोधन। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है—ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप। पहला साधन है-जानो। ज्ञान के बिना काम नहीं बनेगा। दूसरा साधन है-श्रद्धा। केवल जानो ही नही, उसके प्रति श्रद्धा करो, उसके साथ तादात्म्य जोड़ो, एकात्मकता साधो।
जिसके प्रति श्रद्धा नहीं होती, उसके प्रति आकर्षण नहीं होता। कोरा ज्ञान काम का नहीं होता। वह बहुत बार समस्या पैदा कर देता है। ज्ञान के साथ श्रद्धा का होना जरूरी है। श्रद्धा का मतलब है अपने इष्ट के प्रति, लक्ष्य के प्रति पूरा समर्पण।
हम इस सन्दर्भ में एक घटना को देखें। भगवान ऋषभ मुनि बन गए। उन्होंने मुनि बनने से पहले सारे राज्य का वितरण कर दिया। भरत को अयोध्या Jain Education International For Private & Personal Use Only
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