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'मैं रेल पर चढा भी हूं और चढता भी हूं ।'
'फिर क्यों नहीं गए कलकत्ता?"
'मेरे मन में कलकत्ता के प्रति आकर्षण ही नहीं है। मैं क्यों जाऊं ।'
चौथे से पूछा गया - 'तुम कलकत्ता गए या नहीं गए?"
'नहीं गया ।'
'कलकत्ता जानते हो?"
'हां ।'
'क्या तुम यात्रा नहीं करते?"
'मैं ट्रेन और बस से बहुत यात्राएं करता हूं।'
'क्या तुम्हारा कलकत्ता के प्रति आकर्षण नहीं है ।'
'उसके प्रति आकर्षण भी है।'
महावीर का पुनर्जन्म
'तुम कलकत्ता क्यों नहीं गए?'
'मैंने सुना है - कलकत्ता का रास्ता बड़ा टेढ़ा है। वहां जाने में बहुत कठिनाइयां है, बड़ा खतरा है। वहां नक्सलवादी बहुत हैं, प्रदूषण की समस्या भी बहुत है । मैं इस प्रकार का खतरा मोल लेना नही चाहता। वहां जाने वाले को बहुत तपना पड़ता है । यह तपना मेरे वश की बात नहीं है ।'
चार दृष्टिकोण बन गए । कलकत्ता एक और दृष्टिकोण चार। एक भी व्यक्ति कलकत्ता नहीं पहुंच पाया। कलकत्ता कौन पहुंच पाएगा। पहली बात है ? कलकत्ता को जानना । दूसरी बात है कलकत्ता जाने की रुचि का होना, आकर्षण का होना। तीसरी बात है-गति करना, उस ओर प्रस्थित होना, उसकी यात्रा पर चल पड़ना । चाहे वाहन से यात्रा करें या पैदल यात्रा करें। चौथी बात है - खतरों को मोल लेने का सामर्थ्य होना । यदि ये चारों बातें मिल जाती हैं तो कलकत्ता पहुंचा जा सकता है, बम्बई पहुंचा जा सकता है, मास्को या वाशिंगटन पहुंचा जा सकता है।
दर्शन के क्षेत्र में भी अलग-अलग दृष्टिकोण रहे हैं । बहुत प्रसिद्ध शब्द है— ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग। कुछ लोगों का विश्वास रहा-ज्ञान ही सब कुछ है। कुछ लोगों की यह धारणा रही - आचरण ही सब कुछ है। कितना ही जानो पर आचरण के बिना कुछ नहीं होता ।
एक व्यक्ति बहुत अच्छा तैरना जानता है किन्तु यदि वह नदी के तेज बहाव में कूदेगा तो डूब जाएगा। एक व्यक्ति कहता है-मैं तैरना जानता हूं पर पैर नहीं हिलाऊंगा, वह भी डूब जाएगा । कुछ लोग कहते है- ज्ञान ही प्रधान है और कुछ लोग कहते हैं- ज्ञान की बात छोड़ो, आचरण ही सब कुछ है । कुछ कहते हैं-ज्ञान और आचरण - दोनों को छोड़ो। भक्ति ही श्रेष्ठ है। हम प्रभु की भक्ति करें और सर्वात्मना कहें- प्रभो! हम आपकी शरण में हैं। एक शक्तिशाली व्यक्ति की शरण में जाने के बाद कुछ करने की जरूरत क्या है? भगवान भरोसे होगा सारा काम । यह भी एक दृष्टिकोण है ।
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