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________________ तितिक्षा की कसौटियां जिनकल्प की साधना __ जैन धर्म में जिनकल्प की प्रतिमा को स्वीकार करने वाला सबसे पहले पांच तुला का प्रयोग करता है। उसके लिए पांच कसौटियां होती हैं। जो मुनि छह महीने तक भूखा रह सके, इतनी साधना कर ले, वह जिनकल्प को स्वीकार कर सकता है। जो मुनि अभय बन जाए, श्मशान प्रतिमा कर सके, वह जिनकल्प प्रतिमा स्वीकार कर सकता है। पहले वह इस प्रतिमा का अभ्यास करता है। इसका एक अभ्यास-क्रम है। वह पहले अंधेरे में अकेला ध्यान करना शुरू करता है। वहां डर न लगे तो एक भूमिका सिद्ध हो गई। इसके पश्चात रात को बारह बजे उठकर बाहर जाकर अकेला ध्यान करता है। उसके सिद्ध हो जाने के बाद उपाश्रय से बाहर जाकर मार्ग के आस पास ध्यान करता है। उसकी सिद्धि के पश्चात चौराहे पर ध्यान करता है। इतना होने के बाद वह श्मसान में जाकर ध्यान करता है। जब श्मसान प्रतिमा सध जाती है तब मुनि जिनकल्प की साधना को स्वीकार कर सकता है। ये अभ्यासजनित सिद्धियां हैं, इन्हें अभ्यास के द्वारा साधा जा सकता है। अनुबन्ध : चंचलता और पीड़ा में। __ आसन कायसिद्धि का एक प्रयोग है, इसका कारण भी बहुत सुन्दर बतलाया गया। व्यक्ति को कष्ट होता है चंचलता के कारण। एक नियम है-जितनी चंचलता उतनी पीड़ा। जितनी चंचलता कम, उतनी पीड़ा कम। जितनी स्थिरता उतनी ही शान्ति। चंचलता और पीड़ा में गहरा सम्बन्ध है। आसन करने से और आसन सिद्धि होने से शरीर की चंचलता कम होती है, मन की चंचलता कम होती है तब संवेदन-शून्यता आती है, संवेदना कम हो जाती है। आसन से व्यक्ति की क्षमता और स्थिरता बढ़ जाती है। उससे वह द्वन्द्वों को झेलने में समर्थ बन जाता है। आसन-सिद्धि एक उपाय है द्वन्द्वों को झेलने का, शारीरिक और मानसिक क्षमता को बढाने का। जब क्षमता और स्थिरता प्रबल बनती है. परीषह अकिंचित्कर बन जाते हैं। क्षमता का निदर्शन तेरापन्थ धर्मसंघ के एक विशिष्ट संत हुए हैं मुनि हेमराजजी। वे जयाचार्य के विद्यागुरु थे। वे रात्रि के समय सदा कायोत्सर्ग करते। पौष मास में राजस्थान की ठिठुरने वाली सर्दी में रात को बारह बजे, एक बजे केवल एक पछेवड़ी (पतला सा सूती वस्त्र) रखते और थोड़ी देर बाद उसे भी उतार देते। उस सर्दी में एक प्रहर-तीन घंटे तक खुले शरीर कायोत्सर्ग करते। सहन करने की क्षमता का यह एक निदर्शन है। आचार्यश्री कई बार ऐसे व्यक्तियों को देखते, जो बहुत ढंके रहते, गला बांधे रखते। ऐसा लगता है-जैसे उनके गला है ही नहीं। आचार्यश्री उनसे कहते-ऐसा करना अपने शरीर को कमजोर बना लेना है। जिस अवयव को खुली हवा नहीं लगेगी, उस अवयव के ज्ञान-तंतुओं की क्षमता कम हो जाएगी। वे कमजोर बन जाएंगे, कष्ट झेल ही नहीं पाएंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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