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महावीर का पुनर्जन्म
प्राचीन मान्यता के अनुसार जो ईश्वर को नहीं मानता, आत्मा को नही मानता, वह नास्तिक होता है। गांधी ने कहा-बहुमत का अर्थ है नास्तिक, भीडतंत्र का अर्थ है-नास्तिक।
एक गांव में एक सरपंच था। अन्यान्य पंच उससे बिगड़ गए। स्वार्थों का टकराव मित्रता रहने नहीं देता। उन पंचों ने गांव में एक बात प्रचारित की कि सरपंच मर गया। सारे गांव में यह बात फैल गई। दो चार व्यक्ति सरपंच के घर आए और बोले-'सरपंच को दफनाना है।' सरपंच बोला- 'मैं जिन्दा बैठा हूं। क्या जिन्दे को दफनाओगे?' इतने में भीड़ इक्ट्ठी हो गई, सभी का एक ही स्वर था, सरपंच को दफनाना है, वह मर गया। सरपंच प्रधान के पास गया और अपनी नाजुक स्थिति रखी। प्रधान बोला-'जब सारा गांव कह रहा है तो मैं क्या कर सकता हूं।' सरपंच बोला-'क्या आप मुझे बचा नहीं सकते?, प्रधान बोले-'मैं बचा तो नहीं सकता। क्योंकि मुझे इन्हीं से तो वोट लेने हैं। मैं जनता के विरुद्ध नहीं जा सकता।' यह है बहुमत की बात। लौकिकता : अलौकिकता
बहुत बड़ा सिद्धांत है-अकेले चलने का। अकेले चलने के पीछे कितना पौरुष चाहिए? कितना न्याय और ज्ञान की शक्ति चाहिए? कितना आत्मवल और मनोबल चाहिए? जब ये सारी बातें मिलती हैं. तब व्यक्ति 'एकला चलो रे' के योग्य होता है। गर्गाचार्य उन्हीं व्यक्तियों में से एक थे।
आचार्य श्री तुलसी के जीवन-प्रसंग में भी ऐसा हुआ था एक बार । गंगापुर में जो घटा, वह कम भयानक नहीं था। बहुत बड़ा खतरा सामने आया। अनेक संत संघ से पृथक् हो गए। दबाव बढ़ता ही गया। बात वही थी कि जो भी निर्णय होता है, उसकी पृष्ठभूमि में एक नीति, एक सिद्धान्त, एक विचार होता है। सबको उसके साथ चलना है। कौन चलेगा और कितने चलेंगे—यह बात दूसरे नंबर पर है। पहले नंबर की बात है, निर्णीत बात को यथावत् मानना। जहां पहले नंबर की बात दूसरे नंबर पर और दूसरे नंबर की बात पहले नंबर पर आ जाती है वहां धर्म की तेजस्विता, संघ का अनुशासन गौण हो जाता है। वहां लौकिकता प्रधान बन जाती है। लौकिकता को साथ लिए चलना है पर अलौकिकता को विस्मृत कर नहीं। केवल लौकिकता के प्रवाह में प्रवाहित होना लाभप्रद नहीं होता।
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