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परम पौरुष एक आचार्य का
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विहार करने की बात ही सोचने के लिए तैयार नहीं हुए। शिष्यों ने देखा, उनका पौरुष जागा और वे आचार्य को अकेला छोड़ अन्यत्र चले गए।
__ पहली घटना में आचार्य के पौरुष से फलित हुआ 'एकला चलो रे' और दूसरी घटना में शिष्यों के पौरुष से घटित हुआ—'एकला चलो रे।'
जब हम आचार्य भिक्षु के जीवन को देखते हैं तब पौरुष और पराक्रम की बात सहसा सामने आ जाती है। प्रारंभ में तेरह मुनि अलग हुए। उनमें सात चले गए। यह सिलसिला चलता रहा। परंतु आचार्य भिक्षु के पराक्रम की लौ इतनी प्रबल थी कि वे 'एकला चलो' के पावन प्रतीक बन गए। जाने वाले जाए, वे अपने पथ से विचलित नहीं हुए। वे अपने सिद्धांत के आधार पर चले। जो सिद्धांत और दर्शन के आधार पर चलता है, उसका मार्ग भिन्न होता है और जो भीड़ के साथ चलने वाला होता है, उसका मार्ग भिन्न होता है।
: एक है भीड़ का दर्शन ओर एक है आत्मा का दर्शन। दोनों भिन्न हैं। आज राजनीतिक दल भीड़-तंत्र बनकर रह गए हैं। उनका सिद्धान्त-तंत्र टूट गया है। वहां केवल अवसरवाद पनप गया है। उनके सामने केवल लक्ष्य है सत्ता का, कुर्सी का, चुनाव का। उसके पीछे कोई सिद्धान्त नहीं है। सिद्धान्तहीन राजनीति, सिद्धांतहीन तर्क या सत्ता देश और समाज को कहां ले जाएगी, कुछ नहीं कहा
जा सकता। उसी प्रकार सिद्धांतहीन धर्म का मार्ग भी कहीं नहीं पहुंचाता। आचार्य भिक्षु के सामने एक लक्ष्य था, वह परोक्षतः इस दोहे से स्पष्ट हो जाता है
कहो साधु किसका सगा, तड़के तोड़े नेह।
___ आचारी स्यूं हिलमिले, अणाचारी ने छेह।।
उनके सामने सिद्धांत था आचार का। इसी के आधार पर एक त्रिपदी बनी-एक आचार, एक विचार और एक आचार्य। जहां आचार की एकता, विचार की एकता और अनुशासन की एकता होती है वहां संगठन खड़ा हो जाता है। संगठन होना या संघ होना अपने आप में कोई साध्य नहीं है। यदि संगठन साध्य बनता है तो अनर्थ घटित होता है। वहां पर संघ को टिकाए रखने के लिए सब कुछ किया जाएगा। संगठन मात्र एक साधन है, सुविधा का साधन है, व्यवस्था का सूत्र है। मूल साध्य है-जीवन की पवित्रता, जीवन की समता, परम सत्ता का साक्षात्कार। उसकी प्राप्ति के अनेक साधन हैं। संगठन भी एक साधन है। आचार्य भिक्ष ने संगठन को कभी पहला स्थान नहीं दिया। आचार्य भिक्षु
__ आचार्य भिक्षु 'एकला चलो रे' के जीवन्त उदाहरण थे। उन्होंने इस सिद्धांत को मूर्तिमान किया, एक आकार दिया। प्रारंभ में आचार्य भिक्षु के संगठन में तीन ही तीर्थ थे, साध्वियां नहीं थीं। एक बार तीन बहिनें दीक्षा के लिए प्रस्तुत हुई। आचार्य भिक्षु ने कहा-मैं एक शर्त पर दीक्षा दे सकता हूं कि यदि
बहिन का स्वर्गवास हो जाए तो शेष को संथारा (आमरण अनशन) स्वीकार करना पड़ेगा। ऐसी शर्त वही व्यक्ति रख सकता है, जो परम पौरुष का प्रतीक हो, जिसका पौरुष में परम विश्वास हो।
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