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________________ ३४८ महावीर का पुनर्जन्म अनुशासनहीनता के कीटाणु प्रसार पाते हैं. तब अन्यान्य बीमारियां भी सहज आने लगती हैं। एक प्रमाद ही सभी रोगों को निमंत्रण दे देता है। जब उसके साथ अनुशासनहीनता आती है, तब फिर कुछ भी स्वस्थ नहीं रह पाता। गर्गाचार्य ने शिष्यों को परखा, उनकी कसौटी की। किसी शिष्य से कहा, 'जाओ अमुक घर से अमुक वस्तु मांगकर ले जाओ।' उसने तत्काल कहा-'गुरुदेव! आपका कहना ठीक है, परंतु उस घर की मालकिन घर में मिलती ही नहीं। सदा बाहर घूमती रहती है।' दूसरे शिष्य से कहा-'तुम जाओ।' वह बोला-'जाने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है, पर वह मुझे वह वस्तु नहीं देगी। आप और किसी को भेजें।' तीसरे ने कहा-'गुरुदेव! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है पर एक कठिनाई है कि उस घर की मालकिन मुझे पहचानती नहीं है।' चौथे ने कहा-'आपकों मैं ही दीख रहा हूं, दूसरों को क्यों नहीं भेज देते?' आचार्य ने सोचा, बहुत विचित्र बात है। इतना आलस्य! एक ओर परम पौरुष की साधना, परमार्थ की साधना, परमात्मा की साधना, जिसमें पौरुष की सतत लौ जलनी चाहिए, यहां तो दीप ही बुझा हुआ है, लौ की बात ही क्या? सारे के सारे शिष्य अविनीत, प्रमादी और अनुशासनहीन हो गए। कभी-कभी ऐसा होता है कि सारे के सारे एक से हो जाते हैं। सोलह हजार देवता सुबोध चक्रवर्ती के विमान को कंधों पर उठाकर ले जा रहे थे। समुद्र को पार करना था। एक देवता के मन में यह भाव उठा, सोलह हजार देवता विमान को उठाए हुए हैं, एक मैं यदि छोड़ देता हूं तो क्या अंतर आएगा? उसने विमान से कंधा हटा लिया। सभी देवताओं के मन में उस क्षण यही विचार आया और सभी ने अपना सहारा छोड़ दिया। विमान समुद्र में जा गिरा। यह कलेक्टिव माइंड का प्रभाव है। सबका मस्तिष्क एक साथ बदल जाता है। सबके मन में एक ही सोच रहता है। . गर्गाचार्य ने इस स्थिति में एक निर्णय किया। वह निर्णय विचित्र था। यदि उनमें पौरुष नहीं होता, तो वे 'एकला चलो रे' की बात नहीं सोचते। पौरुष के साथ विवेक और साहस का होना अनिवार्य है। विवेक है, विचार है पर यदि साहस नहीं है तो कदम उठेगा नहीं, विचार की क्रियान्विति नहीं होगी। उन्होंने शिष्यों को एकत्रित कर कहा- 'मैं योगवहन कर रहा हूं, समाधि की साधना में संलग्न हूं। तुम सभी उस योग्य नहीं हो। तुम्हारे में समाधि की पात्रता नहीं है। मैं तुमसे अलग होकर ‘एकला चलो रे' की भावना को क्रियान्वित करता हूं।' गर्गाचार्य अकेले ही अपने स्थान से चल दिए। यह इतिहास की विरल घटना है। आचार्य मंगु __ एक घटना है आचार्य मंगु की। वे उत्तर मथुरा में गए और वहां के उपासकों की भक्ति से रीझ गए। वहां की सुख-सुविधाओं ने उनके मन में स्थान के प्रति व्यामोह पैदा कर दिया। बहुत दिन बीते, महीने बीत गए, पर वे वहां से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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