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परम पौरुष एक आचार्य का
हमारे सामने दो स्वर उभर रहे हैं- 'मैं सबके साथ चलूंगा।' और 'एकला चलो रे।' इतिहासकाल में अनेक घटनाएं ऐसी घटित हुई कि इन दोनों स्वरों को एक आकार मिला। अकेला चलना बहुत कठिन कार्य है। इसमें परम पौरुष की आवश्यकता होती है। जिसमें पौरुष नहीं होता, वह अकेला चलने की वात भी नहीं सोच सकता।
एकला चलो रे' में तीन बातें हैं-स्वतंत्रता की मनोवृत्ति, अपने पौरुष पर निर्भरता तथा अपने भुजबल पर विश्वास। आज भारतीय जीवन पद्धति में 'एकला चलो रे' में कम विश्वास है और सबके साथ चलने में अधिक विश्वास है। अपने पौरुष पर हमें कम विश्वास है और अपने पिता की संपदा पर अधिक विश्वास है।
_ पश्चिम के कुछेक देशों में ऐसी मनोवृत्ति है कि पुत्र पिता की संपत्ति लेना नहीं चाहता, उस संपत्ति पर भरोसा नहीं करता। वह अपने श्रम से अर्जित संपत्ति पर भरोसा करता है और उसी से जीवन चलाना चाहता है। भारतीय मनोवृत्ति में अन्तर है। पिता की संपत्ति का बंटवारा करते समय भाई-भाई कुछ कम-अधिक के लिए आकाश-पाताल एक कर देते हैं। उन्हें स्वयं के अर्जन पर भरोसा नहीं है, अपने हाथों पर भरोसा नहीं है। उन्हें पत्नी की संपत्ति पर कितना भरोसा है? थोडा सा दहेज कम आते ही पत्नी को जलाना, मार डालना, सामान्य बात-सी हो रही है। कहां है पौरुष पर विश्वास? जब मनुष्य में अपने पौरुष पर विश्वास नहीं रहता तब इस प्रकार की हीनता आ रही है। आज प्रति वर्ष दहेज की बलिवेदी पर सैकड़ों कन्याओं की हत्याएं हो रही हैं। इसका कारण है, व्यक्ति को अपने आप पर आस्था नहीं है, अपनी शक्तियों पर विश्वास नहीं है। 'एकला चलो रे' की बात तो दूर, उसे अपने पौरुष पर भरोसा नहीं है। जहां मुफ्तखोरी आती है वहां पौरुष का देवता सो जाता है। जब पौरुष का देवता जागता है तब मुफ्तखोरी सो जाती है। दोनों साथ में नहीं रह सकते। अपने आप पर भरोसा होना, असाधारण बात है। पौरुष के देवता आचार्य गर्ग
धार्मिक क्षेत्र में भी इस प्रकार की घटनाएं घटित हुई हैं। जब पौरुष का देवता जागता है तब 'एकला चलो रे' की बात सामने आती है। गर्गाचार्य योग के आचार्य थे। वे समाधि का संधान कर रहे थे, साधना कर रहे थे, योग का वहन कर रहे थे। जब उन्होंने देखा-उनके सभी शिष्य प्रमादी और अनुशासनहीन हो गए हैं, श्रम से जी चुराने लगे हैं तब उनका चिन्तन मुड़ा। जब प्रमाद और
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