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महावीर का पुनर्जन्म
कार्य बारी-बारी से सबको करने होते हैं। सभी करते हैं। किसी के मन में कोई हीनभावना नहीं आती। यह समतामूलक व्यवस्था का ही प्रभाव है।
इसका फलितार्थ है कि जहां समतामूलक व्यवस्था है वहां पूरी स्वतंत्रता है। व्यक्ति का कर्तव्य स्वयं बोलता है। समतामूलक समाज में ही स्वतंत्रता का
अनुभव हो सकता है। जहां विषमता है, वहां कैसी स्वतंत्रता? मिच्छाकार : तथाकार
समाचारी का सातवां तत्त्व है-मिच्छाकार। स्वतंत्र व्यक्ति ही मिच्छाकार का प्रयोग कर सकता है। परतंत्र व्यक्ति कभी नहीं कर सकता। मिच्छाकार का अर्थ है-अपनी भूल का सहर्ष स्वीकार। जिस व्यक्ति में समता है, स्वतंत्रता की चेतना जागृत है, वह अपनी भूल का अनुभव तत्काल कर लेता है। वह सोचता है मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। वह भूल को स्वीकार कर लेगा।
समाचारी का आठवां तत्त्व है-तथाकार। जब गुरु सूत्र पढ़ाएं, समाचारी आदि का उपदेश दें अथवा कोई बात कहें तो मुनि नथाकार का प्रयोग करे- 'आप जो कह रहे हैं, वह अवितथ है, सच है, वैसा ही है।' यह स्वीकार अहं-विलय से उत्पन्न स्वीकार है। 'विनयेन आयाति विद्या' का सूचक है।
सामाचारी में ऐसे तत्त्व समाहित किए गए हैं, जिनसे व्यक्ति की चेतना उदात्त बने। 'इच्छाकार' और 'मिच्छाकार' ये दोनों तत्त्व व्यक्ति की उदारता के द्योतक हैं। जो व्यक्ति स्वतंत्र चेतना का धनी है, वही इन्हें स्वीकार करता है और यह भी कहा जा सकता है कि जो इनकी साधना करता है, वह उदात्त चेतना का धनी बन जाता है।
सामाचारी का नौवां तत्त्व है-अभ्युत्थान। यह शिष्टाचार का सूचक शब्द है। इसका तात्पर्य है-बड़ों का सम्मान करना, गुरु की पूजा करना। यह भी महान चेतना का कार्य है। व्यक्ति स्वयं सम्मान पाना चाहता है पर दसरों को सम्मान देना नहीं चाहता। अंहकार इसमें बाधक बनता है। जब विनय की बात आती है, झुकने की बात आती है, तब अहंकार सामने आकर खड़ा हो जाता है। झुकना सरल नहीं होता, कठिन होता है। झुकने को आज गुलामी माना जाने लगा है। इस धारणा ने व्यक्ति में अकड़न पैदा की है। अन्यथा विनम्र होना, शिष्ट होना, बड़ों का सम्मान करना-ये सारे महानता के लक्षण हैं। उपसंपदा
सामाचारी का दसवां या अंतिम तत्त्व है-उपसंपदा। इसका तात्पर्य है विशिष्ट उपलब्धि के लिए समर्पित हो जाना। एक गण को छोड़कर दूसरे गण में जाना उपसंपदा है। इस अभिक्रमण का हेतु है-ज्ञान, दर्शन और चरित्र की विशेष उपलब्धि। इन कारणों के सिवाय मुनि एक व्यवस्था को छोड़कर दूसरी व्यवस्था स्वीकार नहीं कर सकता। उपसंपदा ग्रहण करना, यह औत्सर्गिक विधि नहीं है, आपवादिक विधि है। जब मनि यह सोचें कि वर्तमान में वह जिस गण की व्यवस्था में रह रहा है, वहां ज्ञान, दर्शन और चरित्र की विशेष उपलब्धि कराने वाले बहुश्रुत मुनि नहीं हैं तब वह गुरु की स्वीकृति लेता है और दूसरे
गण में जाकर वहां के आचार्य के प्रति पूर्ण समर्पित हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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