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________________ सामाचारी संतों की कहा-'आचार्यजी! आपके संघ में सवा सोलह आना समाजवाद है। मैं चाहता हूं कि वह नीचे उतरे, समाज में व्यवहृत हो, केवल साधु-समाज तक ही सीमित न रहे।' समविभाग की चेतना का तात्पर्य है कि मुनि जो कुछ याचना कर लाए, उसका उपभोग अकेला न करे। अपने सभी साथियों के साथ करे। उसकी भाषा होगी-'साहू होज्जामि तारिओ-आप सब मुनि मेरे द्वारा याचित या लाई हुई चीज में हिस्सा बंटाएं। मैं धन्य हो जाऊंगा, निहाल हो जाऊंगा। आप मेरे पर अनुग्रह करें। आप मेरी वस्तु को काम में लें।' यह है सामुदायिक जीवन की विशेषता। आदमी बड़ा विचित्र है। जहां उसे वैयक्तिक होना चाहिए, वहां वह समाजवादी बन जाता है और जहां समाजवादी होना चाहिए, वहां वह वैयक्तिक हो जाता है। कोई कहे-भाई! तुम प्रामाणिक बनो, धार्मिक बनो, ईमानदार बनो। बुराइंया मत करो। दूसरों को मत ठगों।' वह कहेगा, क्या कहा? सारा संसार कर रहा तो भलां मैं अकेला कैसे बचूं? मैं तो सबके साथ रहूंगा, अकेला नहीं। दूसरा पक्ष है, जब वह विवाह में लाखों रुपये खर्च करता है, मकान आदि के अलंकरण में पैसे को पानी की तरह बहाता है, तब उसे कहा जाए-यह कैसा व्यवहार? इतनी फिजूलखर्ची क्यों?। वह कहता हैं-मैं पुण्यकर्म करके आया हूं, सुख-संवेदना भोगता हूं। दूसरे के पास नहीं है तो मैं क्या करूं? मनोभाव तब तक टिक सकता है, जब तक व्यक्ति में समविभाग की चेतना नहीं जागती। जिसमें सम्यग्दर्शन का अवतरण हो गया, उसमें समविभाग की चेतना अवश्य जागेगी। समविभाग की चेतना का अर्थ है-करुणार्द्र होना। इच्छाकार सामाचारी का छट्ठा तत्त्व है-इच्छाकार। यह है स्वतंत्रता का मूल्य करने वाला तत्त्व। जैन परंपरा में स्वतंत्रता को बहुत मूल्य दिया गया। जहां क्षमता है वहां स्वतंत्रता का मूल्य होता है। जहां क्षमता नहीं होती, वहां स्वतंत्रता का विशेष मूल्य नहीं होता। संक्षेप में यह रहस्य है कि अकरणीय का वर्जन और करणीय में पूरी स्वतंत्रता। वर्जना केवल अकरणीय की है। करणीय की वर्जना नहीं, करने की स्वतंत्रता है। 'इच्छाकार' का अर्थ है-अपनी इच्छा हो, मर्जी हो तो यह कार्य करो। पूरी स्वतंत्रता है इस विधि में। यह स्वतंत्रता का सम्मान, मूल्य है। सामाचारी में इसको पूरा स्थान प्राप्त है। आगम के व्याख्याकारों ने लिखा-'जहां आपवादिक स्थिति हो, वहां आज्ञा का प्रयोग किया जाए, अन्यथा सर्वत्र इच्छाकार-स्वतंत्रता का प्रयोग हो।' यदि धर्म के क्षेत्र में स्वतंत्रता न हो तो अन्य क्षेत्रों में स्वतंत्रता संभव नहीं है। लोकतंत्र आया पर स्वतंत्रता कहां मिली? जब तक समाज की व्यवस्था समतामूलक नहीं होती, तब तक स्वतंत्रता नहीं होती। स्वतंत्रता की आधारभूमि है समता। समता होती है तो स्वतंत्रता संभव होती है। तेरापंथ में इतने साधु-साध्वियां हैं। सबका काम चलता है। कहीं कोई अव्यवस्था नहीं होती। इसका मूल कारण है कि धर्म संघ में समतामूलक व्यवस्था का प्रचलन है। सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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