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महावीर का पुनर्जन्म
है, चलता है, बैठता है, सोता है, खाता है। उसे ईर्यापथ करना होता है। यह वह कैसे संपन्न करे? समूह का प्रश्न है। एक मुनि बाहर जा रहा है। इतने में दूसरा मुनि उसे टोकते हुए कहेगा-कहां जा रहे हो? क्यों घूम रहे हो? इसलिए प्रवृत्ति का विवेक देते हुए बताया गया कि जब तुम बाहर जाओ तब 'आवस्सही' शब्द का उच्चारण करो। सामने वाला समझ जाएगा कि तुम बाहर किसी प्रयोजन विशेष से जा रहे हो, बिना मतलब नहीं। फिर न टोका-टोकी होगी और न तुम्हें मनस्ताप होगा। ऐसी स्थिति में तुम अनावश्यक घूमोगे ही नहीं। आवश्यकता का विवेक प्रवृत्ति के साथ जोड़ दिया।
जब प्रयोजन पूरा हो जाए, बाहर से स्थान पर लौटे तो 'निस्सही निस्सही' का उच्चारण करे। इसका तात्पर्य है कि मैं किसी प्रयोजनवश बाहर गया था, अब उसे संपन्न कर लौट आया हूं। यह आने की सूचना है, ताकि कोई यह न सोचे, अमुक मुनि तब बाहर गया था, अभी तक लौटा क्यों नहीं? अनेक भ्रान्तियां पैदा हो जाती हैं। यह शब्द इन भ्रान्तियों को निरस्त कर देता है। यह दूसरा नियम है सामाचारी का। आपृच्छा : प्रतिपृच्छा
तीसरा नियम है-आपृच्छा-निर्देश। अन्यान्य सभी कार्यों के लिए मुनि गुरु का निर्देश प्राप्त करे। मुनि कर्म करे, पर ऐसा कर्म न करे, जो निकम्मा हो, अप्रयोजनीय हो। कर्म उतना ही जितना प्रयोजन हो। लोग कर्म या धर्म को अतिरिक्त मूल्य देते हैं। कर्म का मूल्य अवश्य है, पर उसे अतिरिक्त मूल्य देना भ्रान्ति है। कर्म साध्य नहीं है, वह साधन है किन्तु जब उसे साध्य मान लिया गया, तब भ्रान्ति पैदा हो गई। कर्म के साथ आदर्श का योग होना चाहिए। मनि के लिए अनेक बार कायोत्सर्ग करने का विधान है। जो कर्म करता है और अकर्म करना नहीं जानता, उसे कर्म भटका देता है। हर कर्म के साथ अकर्म जुड़ा रहे। आगम वाणी है-कर्म से कर्म-जाल को नहीं तोड़ा जा सकता। अकर्म से कर्म को तोड़ा जा सकता है।
चौथा नियम है-प्रतिपच्छा। एक कार्य के लिए निर्देश लिया, अब उसके अन्तर्गत अन्यन्य कार्य करने हों तो 'प्रतिपृच्छा'-पुनः निर्देश लें और अपना कार्य संपन्न करें।
सामुदायिक जीवन में जब ये नियम व्यवहृत होते हैं तब जीवन रसमय बन जाता है। अन्यथा गड़बड़ी हो जाती है। आपृच्छा और प्रतिपृच्छा के बिना जिसके मन में जो आया, वह करेगा।
एक मुनि रोगी है। उसको पूछने, परिचर्या करने दस मुनि आ खड़े होते हैं! जब दूसरा मुनि बीमार होता है तब बुलाने पर भी एक भी नहीं आता। यहां निर्देश की बात आती है। गुरु का निर्देश संपूर्ण व्यवस्थाएं देता है। उस निर्देश से अनावश्यक कुछ नहीं होता और आवश्यक सब सम्पन्न होता है।
पांचवीं सामाचारी है-छंदणा। इसका तात्पर्य है-समविभाग की चेतना का विकास। सामुदायिक जीवन का यह आधार-तत्त्व है आज समाज में यदि यह
चेतना जाग जाए तो विषमता अपनी मौत मर जाए। एक बार जयप्रकाश बाबू ने Jain Education International For Private & Personal Use Only
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