SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामाचारी संतों की हवा के दो रूप हैं—व्यक्तिगत और सामुदायिक। जब हवा व्यक्तिगत रूप में रहती हैं तब ठीक लगती है और जब सामुदायिक रूप ले लेती है तब बड़ी विचित्र बन जाती है। मुनि के जीवन के भी दो रूप हैं-व्यक्तिगत और सामुदायिक। कोरे व्यक्तिगत रूप से भी काम नहीं चलता और कोरे सामुदायिक रूप से भी काम नहीं चलता। उसका व्यक्तिगत रूप है कि वह अपने आराध्य से जुड़ा रहे। 'नमो अरहंताणं' यह उसका आराध्य है। वह अर्हत् से जुड़ा रहे। यदि यह होता है तो आगे का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। दूसरा रूप है सामुदायिक अर्थात् समुदाय के साथ जुड़ा रहना। हमारी चर्या दो प्रकार की बन जाती है-व्यक्तिगत चर्या और समुदाय चर्या । व्यक्तिगत आचार और सामुदायगत आचार। व्यक्तिगत आचार स्वयं तक सीमित रहता है। मैं जानता हूं कि मैं कैसा हूं? किससे जुड़ा हुआ हूं? कितना आध्यात्मिक हूं? दूसरा कोई नहीं जान सकता। यह नितान्त आत्मगत बात है, पर यह जिसे उपलब्ध होता है, वह अपने आपको बहुत तृप्त और आनन्ददायक अनुभव करता है। यह है पदार्थ-विहीन तृप्ति और पदार्थ-निरपेक्ष आनन्द। इसका अनुभव वही व्यक्ति कर सकता है, जो भीतर में रहना जानता है। दूसरा पक्ष है-सामुदायिक पक्ष अथवा व्यवहार पक्ष। व्यक्तिगत जीवन जीना एक कला है। सामुदायिक जीवन जीना उससे भी बड़ी कला है। मुनियों को सामुदायिक जीवन कैसे जीना है-इसके लिए एक सामाचारी बनाई गई। वह आज की नहीं, बहुत पुरानी है। इसके पारिभाषिक अर्थ अनेक किए गए हैं परंतु इसका सम्यक अर्थ है-सामूहिक आचार। यह सामूहिक आचार-संहिता है। इसके सूत्र सामूहिक जीवन जीने के मंत्र-सूत्र हैं। अकेला रहना कठिन है, पर अति कठिन है समुदाय के साथ रहना। अनेक व्यक्ति अकेले रहते हैं, अपने आपमें रहते हैं, रह सकते हैं पर समुदाय के साथ रहना अत्यंत कठिन है। समुदाय में नाना रुचियां, नाना विचार, नाना इच्छाएं, नाना कल्पनाएं, नाना मनोभाव, नाना मनोदशाएं, नाना मूढ़ताएं होती हैं। इन सबके बीच सफल जीवन जीना जीवन की महान कसौटी है। सबके साथ सामंजस्य स्थापित कर शांति के साथ जीना, एक महान कला है। सामुदायिक जीवन-संहिता भगवान महावीर ने, बहुश्रुत आचार्यों ने, मुनि के लिए एक आचार-संहिता बनाई कि वह सामुदायिक जीवन कैसे जीए? उसका पहला सूत्र है-प्रवृत्ति का विवेक। मुनि को प्रवृत्ति करनी होती है। वह गमन-आगमन करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy