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ब्राह्मण वह होता है
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निर्मल नहीं रह पाती। स्रोत जितना निर्मल होता है, विस्तार उतना निर्मल नहीं
रह पाता ।
उस समय कुछ ब्राह्मण निर्मल रहे होंगे। अब जब ब्राह्मण एक जाति बन गई, उसका विस्तार हो गया, तब उतनी निर्मलता की बात हम कैसे सोच सकते हैं? इस प्रकृति के नियम का हम अतिक्रमण न करें। इस सचाई को मानकर चलें ।
ब्राह्मण : भयातीत
उत्तराध्ययन सूत्र में ब्राह्मण की व्याख्या में एक मार्मिक उल्लेख है कि ब्राह्मण जातरूप स्वर्ण की भांति होता है । स्वर्ण को आग में तपाकर साफ कर दिया जाता है । उसका मैल धुल जाता है, वह निर्मल हो जाता है । उसी प्रकार जिसके मन में राग, द्वेष और भय नहीं होता, वह ब्राह्मण होता है । राग-द्वेष मलिनता पैदा करते है । इनसे दूर होना निर्मल होना है । राग और द्वेष के साथ भय से अतीत होना, ब्राह्मण का लक्षण है। विराट वह होता है, ब्राह्मण वह होता है जो अभय है, भय से अतीत है। जहां भय है वहां सीमा है । भय का अर्थ ही है—स्वयं को सीमित कर लेना । जो सीमित है वह भय के घेरे में है । जो व्यापक है, विराट है वह भयातीत है। उपनिषद् में बहुत सुन्दर कहा गया- 'द्वितीयाद् वै भयम्।' जहां दूसरा है वहां भय है । यदि दूसरा नहीं है तो कोई भय नहीं है । अकेला किससे डरेगा? क्यों डरेगा? वहां डरने का कोई कारण ही नहीं है। जहां दूसरा आया वहां डर प्रवेश कर गया।
जब कोरा ब्रह्म नहीं रहा तब भय पैदा हो गया । जब भय है तो ब्राह्मण कहां रहा?
संयुति
: भय और परिग्रह की
विजयघोष और जयघोष - दोनों भाई-भाई थे। एक जैन मुनि बन गया और दूसरा यज्ञ का अनुष्ठान करने लगा। दोनों मिले, बातचीत हुई। दोनों के बीच संवाद चला। जयघोष बोला- 'ओ मुनि! तुम यहां भिक्षा लेने आए हो, पर क्या तुम नहीं जानते कि यह भिक्षा उसी को मिलेगी जो द्विजोत्तम है, श्रेष्ठ ब्राह्मण है, जो अपना और पर का उद्धार करने में समर्थ है। हम ब्राह्मण यज्ञ-याग के द्वारा स्वयं का और पर का उद्धार करते हैं। तुम क्या करते हो? तुम्हें भिक्षा नहीं मिलेगी।' विजयघोष बोला- 'तुम अभी जानते ही नहीं कि कौन होता है उद्धार करने वाला । न तुम ब्राह्मण के स्वरूप को ही जानते हो। तुम भय से घिरे हुए हो ।' जहां परिग्रह है वहां भय है । परिग्रह और भय - ये दो शब्द हैं, पर इनका अर्थ एक ही है। कोशग्रन्थों में ये पर्यायवाची नहीं माने गए, पर इनको पर्यायवाची मानने में कोई बाधा नहीं है। जहां परिग्रह है वहां भय है ओर जहां भय है वहां परिग्रह है । यह व्याप्ति है। क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो परिग्रही तो है, पर भयातीत है? क्या ऐसा कोई है, जो परिग्रह से मुक्त है और भयातीत है? नहीं मिलेगा ऐसा व्यक्ति । जिस व्यक्ति के मन में न शरीर का परिग्रह है, न संस्कारों और विचारों का परिग्रह है और न पदार्थ का परिग्रह है, वह भयातीत होता है ।
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