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________________ ५३ ब्राह्मण वह होता है भारतीय शब्दकोश में दस-बीस शब्द ऐसे हैं, जो बहुत प्रतिष्ठित हैं। उनमें एक शब्द है-ब्राह्मण। यह शब्द इतना प्रतिष्ठित हो गया कि धर्म की सभी परंपराओं ने इसे अपनाया। जैन, बौद्ध और वैदिक परंपरा-तीनों में इसका वर्णन प्राप्त है। उत्तराध्ययन जैन आगम है। उसमें 'तं वयं बूम माहणं'-अनेक श्लोकों का यह चतुर्थ चरण है। धम्मपद में 'तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं' और महाभारत में 'तं देवा ब्राह्मणं विदुः' ऐसा उल्लेख है। जो शब्द ज्यादा प्रतिष्ठित होता है, उसको सभी अपना लेते हैं। भारतीय समाज व्यवस्था में ब्राह्मण एक प्रतिष्ठित व्यक्ति रहा है। उसे प्रथम कोटि का नागरिक माना गया। उसे 'भूदेव' कहा गया। इसका अर्थ है—पृथ्वी का देवता। उसकी उत्पत्ति के विषय में कहा गया कि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुंह से उत्पन्न हुआ है। शरीर में मुंह का अपना विशिष्ट स्थान है। इस आधार पर ब्राह्मण शब्द में एक विशेष अर्थ की संयोजना हो गई। जो ब्रह्म से संबंध रखता है, जो ब्रह्मविद्या से सम्बन्ध रखता है या विराट से संबंध रखता है, वह होता है ब्राह्मण। ब्रह्म शब्द 'बृंहण्' धातु से बना है। इसका अर्थ है-बढ़ने वाला, विराट होने वाला। ब्रह्म में रमण करने वाला जो विराट है वह ब्राह्मण कहलाता हम समाज-व्यवस्था की दृष्टि से विचार करें। वैदिक वर्ण-व्यवस्था में चार वर्णों की व्यवस्था थी। उसमें सबसे पहला स्थान ब्राह्मण का है। ब्राह्मण वह व्यक्ति है, जो विद्या-संपन्न है, आचार-संपन्न है। ब्राह्मण विद्या का बोध कराता है और आचार का मार्ग दर्शन करता है, सबको आचारवान बनने की प्रेरणा देता है। इस अर्थ में ब्राह्मण शब्द का उद्भव हुआ। समाज में अनेक समायोजनाओं की जरूरत होती हैं। जहां पराक्रम की आवश्यकता हैं वहां बुद्धि और विद्या की भी आवश्यकता है। सबसे अधिक जरूरत है बुद्धि और चरित्र की। विद्या, बुद्धि और आचरण-इनके लिए ब्राह्मण को प्रतिष्ठा दी गई। समाज का वह एक ऐसा स्रोत है कि जहां से ज्ञान सवित होता है, विद्या के स्रोत फूटते हैं, आचार की धाराएं प्रवाहित होती हैं। इनके आधार पर 'ब्राह्मण' शब्द प्रतिष्ठित हो गया। सभी परंपराओं में ब्राह्मण शब्द की व्याख्या अपने-अपने ढंग से की गई। महाभारत धम्मपद और उत्तराध्ययन में ब्राह्मण की व्याख्या अपने-अपने ढंग से की गई है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि ब्राह्मण भारतीय समाज में बहुत ससम्मानीय रहा है पर आज उसमें कुछ अन्तर आया है। हम प्रकृति के नियम को जानते हैं कि जो थारा गंगोत्री से चलती है वह प्रयाग पहुंचते-पहुंचते उतनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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